Wednesday, November 12, 2008

खुद से जूझते नजर आ रहे हैं द्रविड़

दीवार में दरार, ढह गयी दीवार। यह सिर्फ अखबारों और खबरों की सुर्खियां भर ही नहीं हैं। यह कहानी है भारतीय बल्‍लेबाजी क्रम की सबसे मजबूत कड़ी की। बानगी एक ऐसे बल्‍लेबाज की जिसकी
बल्‍लेबाजी की चमक पिछले 12 साल से क्रिकेट जगत में फैली हुई है।

भारत मल्‍होत्रा

राहुल द्रविड़ ने लगभग 12 साल पहले अपने कॅरियर का आगाज किया। तभी से यह नाम भारतीय क्रिकेट में भरोसे का पर्याय बने रहा। एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही नि‍श्चितंता का भाव आ जाता। नाम जो अपने आप में संपूर्णता का ही दूसरा रूप लगता। टी-20 के दौर में टेस्‍ट क्रिकेट की सादगी और कलात्‍मकता को जीते राहुल द्रविड़।

उनका डिफेंस, जिसकी काट खोज पाने में दुनिया भर के गेंदबाज पसीना बहाते देखे गए। संयम और सहनशीलता की मिसाल बनते गए राहुल द्रविड़। गेंदबाज की हर चाल का जवाब अपने धैर्य से देते रहे राहुल द्रविड़। लेकिन, अब वो राहुल द्रविड़ कहीं खो सा गया लगता है। पिछले कुछ अर्से से राहुल अपने रंग में नजर नहीं आ रहे। वो भरोसा, वो नि‍श्चिंतता अब नजर नहीं आती।

जब वो नागपुर में बल्‍लेबाजी करने उतरे तो, एक उम्‍मीद जागी। शायद यहां द्रविड़ की रंगत लौटेगी। नागपुर से राहुल का खास नाता है। यहां उनका ससुराल है। जाहिर सी बात है यहां के लोगों को उनसे कुछ खास प्रदर्शन की उम्‍मीद रही होगी। लेकिन, पहली पारी में जेसन क्रेजा की एक गेंद को द्रविड़ काबू नहीं कर पाए और फॉरवर्ड शॉट लेग खड़े साइमन कैटिच को कैच थमा बैठै। द्रविड़ ने शॉट खेलने में गलती की लेकिन, कैटिच ने उनका कैच थामने में गलती नहीं की। पैवेलियन की ओर लौटते द्रविड़ के साथ लाखों उम्‍मीदें भी लौट रही थी। यहां सिर्फ भारत का विकेट ही नहीं गिरा था बल्कि साथ ही उस भरोसे को भी ठेस पहुंची थी जो राहुल को मैदान पर देखते ही जाग उठता।

दूसरी पारी में राहुल फिर बल्‍लेबाजी करने आए। यूं लगा कि इस बार तो रन जरूर बनाएंगे। सीधा बल्‍ला और गेंद को आंख के नीचे खेलते नजर आएंगें द्रविड। लेकिन, इस बार फिर वो नाकाम रहे। शेन वॉटसन की एक गेंद जब उनके बल्‍ले का किनारा लेती हुए विकेटकीपर ब्रेड हैडिन के दस्‍तानों में गयी राहुल ने सिर्फ तीन रन बनाए थे। एक बार फिर श्रीमान भरोसेमंद भरोसों पर पूरा नही उतर पाए। वैसे अगर भारतीय बल्‍लेबाजी क्रम के फैब फोर की बात करें इस ऑस्‍ट्रेलियाई सीरीज में सभी ने अपने आप को साबित किया है। सिवाय द्रविड़ के। हालांकि श्रीलंका में यही द्रविड वीवीएस लक्ष्‍मण के अलावा एकमात्र ऐसे बल्‍लेबाज थे जिन्‍होने रन बनाने में कामयाबी हासिल की थी। लेकिन, कंगारुओं के खिलाफ अहम सीरीज में नहीं चला राहुल का बल्‍ला। वो लगातार रन बनाने के लिए जूझते नजर आए। गेंद को मानो उनसे कोई बैर हो गया कि तमाम जद्दोजेहद के बाद भी वो उन्‍हें छकाने से बाज नहीं आयी।

राहुल के साथ यह खराब फॉर्म का सिलसिला अब से नहीं पिछले काफी लंबे अर्से से चला आ रहा है। अब उनके समर्थक माने जाने वालों की ओर से भी विरोघी स्‍वर सुनाई पड रहे हैं। यह आवाजें राहुल के पिछले प्रदर्शनों को देखते हुए सही लगती हैं। गुजरे दो सालों में द्रविड़ ने 23 टेस्‍ट मैच खेले। इन मैचों की 43 पारियों में उनके बल्‍ले से सिर्फ 1065 रन निकले। औसत रहा 35 से भी कम। और तो और वे केवल दो बार सौ और सात बार पचास का आंकड़ा पार पाए। बीते दो सालों और उनके पूरे कॅरियर को अगर तराजू के दो पलड़ों में रखें तो फर्क साफ नजर आता है।

साल 2006 तक द्रविड़ ने खेले थे 106 टेस्‍ट मैच, उनका औसत रहा करीब 57 रन बनाए 9098। इसमें शामिल थे 23 शतक और 46 अर्द्धशतक। यह वह दौर था तब टेस्‍ट मैच में राहुल का बल्‍लेबाजी औसत मास्‍टर ब्‍लास्‍टर सचिन से ज्‍यादा था। लेकिन, आज रन औसत के मामले में सचिन उनसे दो कदम आगे नजर आते हैं। अगर हाल ही में खत्‍म हुई ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज की बात की जाए तो वे चार टेस्‍टों की सात पारियों में वे महज 120 रन बना पाए हैं। उनका औसत 20 से भी कम रहा है, जो उनके करियर औसत 52.87 के आसपास भी नहीं है। वे केवल एक बार पचास का आंकड़ा पार कर पाए तकनीक के बादशाह।

राहुल के बारे में कहना चाहिए कि वो बल्‍लेबाजी की बुलेट मोटरसाइकिल हैं, जिन्‍हें गरम होने में वक्‍त लगता है। वे जितना अधिक वक्‍त क्रीज पर बिताते हैं उतनी ही उनकी बल्‍लेबाजी में निखार आता है। लेकिन, बीते वक्‍त के दौरान वे क्रीज पर पांव जमाने से पहले ही उल्‍टे लौटते दिखायी देते हैं। यह राहुल नहीं हो सकते। कई बार अच्‍छी शुरुआत को भी वे बड़ी पारी में तब्‍दील नहीं कर पाते।

राहुल की लड़ाई गेंदबाज या विपक्षी टीम से नहीं, बल्कि खुद अपने आप से है। और, खुद अपने आप से लड़ाई सबसे बड़ी मु‍श्किल होती है। उससे पार पाने में सबसे ज्‍यादा मशक्‍कत करनी पड़ती है। अनिल कुंबले और सौरव गांगुली की विदाई ने राहुल द्रविड़ को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। लेकिन, हम सब चाहते हैं कि दीवार उस दृढ़ता के साथ मैदान पर नजर आए जैसा कि वो बीते कई सालों से नजर आती रही है। ताकि, फिर कोई न कह सके, 'दीवार में दरार' या ढ़ह गयी दीवार।

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