Tuesday, November 4, 2008

मैं और मेरा कुंबले

मुझे रह-रहकर बचपन के वो दिन याद आ रहे हैं जब कभी भारतीय गेंदबाज विकेटों के लिए तरसते नजर आते तो मैं जोर से चिल्‍लाता अरे! कुंबले को दो ना यार। ऐसे मौके कम ही याद आते हैं जब कुंबले मेरी उम्‍मीदों को पूरा करने में कामयाब न रहे हों।

भारत मल्‍होत्रा

अनिल कुंबले ने अपनी छोटी बच्‍ची को गोद में उठा रखा था। उसी बीच कुंबले के सम्‍मान में मैदान में तालियां बजने लगी। वो छोटी बच्‍ची भी अपने छोटे छोटे हाथों से तालियां बजाने लगी। इस बात का अंदाजा भी शायद उसे नहीं रहा होगा कि आखिर सब लोग तालियां क्‍यों बजा रहे हैं। शायद वो बच्‍ची नहीं जानती थी कि आज वो अपने पापा के साथ मैदान पर क्‍यों है। लेकिन, चंद साल गुजर जाने के बाद जब उसके जेहन में इस पल की तस्‍वीर उभरेगी उसे अपने पिता के कद का अंदाजा होगा।

इसी बीच कुंबले की विदाई को यादगार बनाने की होड़ मच गयी। बारी थी उसे कंधे पर बैठाने की। वो आदमी जिसने बरसों बरस अपने कंधों पर भारतीय गेंदबाजी की कमान ढोयी है आज वो खुद को इस खेल से अलग कर रहा है। कुंबले के सभी साथी मैदान पर उसके आखिरी कदमों में उसके हमसफर बने रहना चा‍हते हैं। जहीर खान और राहुल द्रविड़ कुंबले को बाजुओं में उठाए दिखायी दिए। इसी बीच महेंद्र सिंह धोनी ने कुंबले को अपने कंधों पर बैठाकर मैदान में घूमे। तो, ऐसा लगा कि कहीं न कहीं यह इस बात को भी दिखा रहा है कि अब ‘धोनी कुंबले की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार हैं। शायद यही मतलब रहा भी होगा।

मैदान पर कैमरे वाले भी कुंबले इस तस्‍वीर को कैद करने में मशगूल नजर आए। आखिरी बार कुंबले इंडियन कैप पहने मैदान पर जो थे। 192 नम्‍बर लिखे हुए नीले रंग की इंडियन कैप जो पिछले 18 सालों से उनके साथ थी। उस लम्‍हे को टेलीविजन स्‍क्रीन पर देखते हुए आंखें नम हो उठी, ऐसा लगा कि जैसे कोई अपना छोड़कर जा रहा है। हालांकि, असल जिंदगी में न मेरी कुंबले से न कभी मुलाकात हुई और न ही उसे मैदान पर कभी खेलते देखा। जब कभी भी उन्‍हें देखा तो बस 21 इंच की स्‍क्रीन के पार।

कुंबले को पहले पहल मैने कब खेलते देखा यह मुझे याद नहीं आता, लेकिन क्रिकेट के मैदान पर फेंकी गयी आखिरी गेंद को भुला पाना मेरे लिए कभी भी आसान नहीं होगा। एक ऐसा खिलाड़ी जो सिर्फ अपना काम करने मैदान पर उतरता। पूरी मेहनत और सर्मपण के साथ उसे अंजाम देता और उसके बाद वापस अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में चला जाता। मेरी नजर में यही रही है अनिल कुंबले की छवि।

खेल के प्रति कुंबले के जज्‍बे का एक ताजा उदाहरण देखिए, कोटला टेस्‍ट के चौथे दिन, कुंबले की एक गेंद पर मिशेल जॉनसन ने शॉट लगाया। गेंद बल्‍ले का किनारा लेती हुई खड़ी हो गयी। कुंबले ने पीछे दौड़ते हुए उसे कैच कर दोबारा विकेट कीपर की ओर थ्रो भी किया। इसके बावजूद कि उनके बाएं हाथ की उंगली में 11 टांके लगे हुए थे। ये उस जूनून को दिखाता है जिसके साथ कुंबले ने इस खेल को जीया है।

मैन ऑफ द मैच वीवीएस लक्ष्‍मण की बात पर गौर फरमाइए, हमने आसान से कैच छोड़े और कुंबले ने ऐसा कैच किया। यह अपने आप में उनके व्‍यक्तित्‍व को बयान करता है। रिकी पोंटिंग कहते हैं कि हर ऑस्‍ट्रेलियाई जो कुंबले के खिलाफ खेला है खुद पर फक्र महसूस करता है। वो कंगारू जो विरोधियों पर हमेशा हावी होने को आतुर रहते हैं भी जंबो की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते। अब यही है कुंबले का जादू उनकी पर्सनेलिटी।

वो दिन भला कैसे कोई भूल सकता है जब कुंबले एंटीगुआ में वेस्‍टइंडीज के खिलाफ टूटे जबड़े के साथ मैदान पर उतरे। उनके इस जज्‍बे ने मुझे उनका कायल बना दिया। वो आदमी जो मैच में अपनी आखिरी गेंद भी उसी जज्‍बे के साथ फेंकता जितनी कि पहली। हर गेंद पर पूरा जोश और पूरी ताकत लगा देते नजर आते थे कुंबले। कुंबले ने मैदान पर ही खेल को अलविद कहा, भला इससे बेहतर और क्‍या हो सकता है। और अगर वो मैदान उनका अपना कोटला हो तो ये सोने पर सुहागा जैसी बात हो गयी। हर खिलाड़ी की तमन्‍ना होती है कि उसकी विदाई शानदार हो। और जो विदाई कुंबले को मिली है मेरी याद में ऐसी किसी और भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी को नहीं मिली।

मुझे रह रहकर मेरे बचपन के वो दिन याद आ रहे हैं जब कभी भारतीय गेंदबाज विकेटों के लिए तरसते नजर आते तो मैं जोर से चिल्‍लाता अरे! कुंबले को दो ना यार। मुझे ऐसे मौके कम ही याद आते हैं जब कुंबले मेरी उन उम्‍मीदों को पूरा करने में कामयाब न रहे हों। जब कभी उन्‍हें उनके शुरुआती ओवरों में विकेट मिलता तो बड़ी खुशी होती ‘अब ये अकेला ही पूरी टीम खा जाएगा’ बस यही विश्‍वास मन में जाग उठता था।

सचिन, सौरव, राहुल, लक्ष्‍मण और कुंबले। यह सिर्फ खिलाडियों के नाम भर नहीं हैं। ये क्रिकेट के एक युग की पहचान भी हैं। ये वो खिलाड़ी हैं जिन्‍हें मैदान पर उतरते देख मैने और मेरे जैसे लाखों खेल के दीवानों ने खेल को समझना शुरु किया होगा। जिनके बल्‍ले की चमक और गेंद की धार ने अनगिनत लोगों को अपनी ओर न सिर्फ खींचा बल्कि उससे बांधे भी रखा।

अपने क्रिकेट को समझने और जानने के अपने शुरुआती दौर में मैने कभी नहीं सोचा कि इन नामों के बिना भी क्रिकेट देखना होगा। यह सोचते ही मन में तरह तरह की शंकाएं उठने लगती कि जब ये नहीं होंगे तो भारतीय टीम का क्‍या होगा। हम कभी इनके बिना जीत नहीं पाएंगे। लेकिन, पहले सौरव की इस सीरीज के बाद संन्‍यास की घोषणा और अब अनिल कुंबले।

इस खबर के बाद मैने अपने दोस्‍त को फोन किया और कहा कुंबले ने संन्‍यास ले लिया। हैरान तो वो भी हुआ, फिर बोला चलो अच्‍छा हुआ। सही मौके पर फैसला ले लिया। टीम से निकाले जाने से अच्‍छा है खुद ही अलविदा कह दो। मुझे लगा सही ही कह रहा है खुद ब खुद ऐसा फैसला कर कुंबले ने अपने उस कद को ऊंचा कर लिया है जो उन्‍होने इतने साल क्रिकेट खेलने के बाद बनाया। वो समय खेल से गए जब उनके जाने की चर्चाएं गरम नहीं थी। वो टीम के साथ थे और टीम के कप्‍तान थे।

इस बीच मैं दोबारा कुछ सवालों से रु-ब-रु होता हूं । सवाल इस बार विकल्‍प को लेकर नहीं इस बात को लेकर हैं कि अ‍गला कौन? इस दौर में जब खिलाडि़यों पर मैदान से ज्‍यादा विज्ञापन जगत में रहने का आरोप लगता है कुंबले इससे बाजारवाद से काफी हद तक बचे रहे। इक्‍का दुक्‍का अपवादों को छोड़ दें तो कुंबले कम ही टीवी पर किसी उत्‍पाद के साथ जुड़े नजर आए। वे चकाचौंध से दूर रहे सिर्फ अपने काम को करते हुए। शायद, इसी वजह से वो क्रिकेट के सही मायनों में एक हीरो रहे। एक ऐसे हीरो जिसे भले ही वो पहचान और रुतबा हासिल न हुआ हो जिसका वो हकदार था लेकिन, वो कभी भी उस बात का मलाल करता नहीं दिखा।

उनके व्‍यक्तित्‍व की एक बड़ी खूबी रही उनकी सादगी। बोलने का सहज और मधुर अंदाज। प्‍यारी सी मुस्‍कुराहट उन्‍हें दिल में और भी गहरा बसा देती है। क्रिकेट अगर जेन्‍टेलमैन्‍स गेम है तो सही मायनों में कुंबले उसे पूरा करते दिखे। अपने 18 साल लंबे करियर में इस खिलाड़ी पर कभी भी किसी भी तरह का आरोप नहीं लगा। न मैच फिक्सिंग, न डोपिंग और न ही टीम को किसी भी तरह से नीचा दिखाने का। पूरी ईमानदारी और शिदद्त के साथ खेल को जीया कुंबले ने। ना वाद, न विवाद, बस अपने काम के प्रति पूरी निष्‍ठा। यही तो है अनिल कुंबले। अपने करियर के आखिरी बयान में कुंबले ने कहा कि 'मेरी चाहत है कि मुझे एक ऐसे खिलाड़ी के रूप में याद किया जाए जिसने हमेशा अपना 100 प्रतिशत दिया हो।' कुंबले की यह बात ही उनके कॅरियर की बानगी लगती है।

लेकिन जीवन का पहिया नहीं रुकता। कुंबले के जाने का मलाल तो लंबे वक्‍त तक रहेगा। लेकिन, राजकपूर साहब का एक डॉयलाग था- शो मॅस्‍ट गॉ ऑन। कुंबले तो नहीं होंगे लेकिन खेल चलता रहेगा। इस बीच एक आवाज सुनने को नहीं मिलेगी। 'बॅालिंग जंबो।'

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