Friday, November 21, 2008

पीटरसन को तलाशनी होंगी जीत की नई राहें



भारत और इंग्‍लैंड की इस सीरीज को दो टीमों से ज्‍यादा दो कप्‍तानों की जंग कहा गया। दो युवा जाबांज कप्‍तान। दो ऐसे कप्‍तान जिनके लिए जीत ही एकमात्र लक्ष्‍य। दो ऐसे कप्‍तान जो विरोधी को दिमागी लड़ाई में हराने में यकीन रखते हों। लेकिन, महेंद्र सिंह धोनी और केविन पीटरसन के बीच इस दिमागी जंग में पीटरसन कहीं पिछड़ते नजर आ रहे हैं।

भारत मल्‍होत्रा

राजकोट, इंदौर और अब कानपुर। इंग्‍लैंड के लिए मैदान बदलते रहे, लेकिन किस्‍मत नहीं। सात मैचों की वनडे सीरीज में अभी तक हुए मुकाबलों में केविन पीटरसन की टीम हर मोर्चे पर धोनी की टीम के मुकाबले उन्‍नीस ही नजर आ रही है।

केविन पीटरसन का बतौर कप्‍तान विदेशी जमीन पर यह पहला दौरा है। लेकिन, अभी तक इस दौरे पर उनके लिए कुछ भी सही होता नजर नहीं आ रहा। मुंबई एकादश के‍ खिलाफ अभ्‍यास मैच की हार से शुरु हुआ सिलसिला अभी तक जारी है। सात मैचों की सीरीज में पीटरसन की टीम अब एक ऐसे मुकाम पर खड़ी है जहां से उसकी वापसी की राहें अब लगभग नामुनकिन सी हो गयी हैं। सीरीज में 3-0 से पिछड़ने के बाद इंग्‍लैंड अब बचाव की मुद्रा में आ गई है।

भारत दौरे पर आने से पहले इंग्‍लैंड के कोच पीटर मूर्स और पीटरसन की ओर से लगातार इस तरह की बयानबाजी हो रही थी कि भारत दौरे पर वे जीतने आ रहे हैं। लेकिन भारत की जमीं पर उतरने के एक पखवाड़ा बीतने के बाद वो बातें हवाई महल नजर आने लगे हैं।

इस सीरीज को केविन पीटरसन और महेंद्र सिंह धोनी की दिमागी जंग कहा गया। ऐसा कहा जाने लगा कि इन दोनो में जो यह जंग जीतेगा अंत में सीरीज का ताज भी उसी के सिर होगा। पीटरसन काफी आक्रामक कप्‍तान माने जाते हैं। एक ऐसा कप्‍तान जो बने बनाए रास्‍तों पर चलने में विश्‍वास नहीं रखता वो अपने रास्‍ते खुद तय करता है। मंजिल पर पहुंचने का हर मुनकिन रास्‍ता अपनाते के लिए तैयार दिखायी देते थे पीटरसन- लेकिन भारत दौरे पर उनका सामना भारत के महेंद्र सिंह धोनी से हुआ। धोनी की चालों के सामने पीटरसन के सभी मोहरे कमजोर साबित हो रहे हैं।

उनके बल्‍लेबाज रन बनाने में कामयाब नहीं हो रहे और गेंदबाज विकेटों को तरसते नजर आ रहे हैं। अंग्रेजों के लिए यह बड़ी समस्‍या तो है ही लेकिन एक आदमी जिस पर सबसे ज्‍यादा दबाव हैं वो है केविन पीटरसन। बल्‍लेबाजी क्रम में बदलाव किया गया टीम का कॉम्बिनेशन बदला गया। लेकिन नतीजा वही सिफर। दक्षिण अफ्रीकी मूल के इस इंग्लिश कप्‍तान के सामने इस समय काफी मुश्किलें हैं।

वैसे पीटरसन का क्रिकेट करियर भी किसी रोमांच से कम नहीं है। पीटरसन ने अपने क्रिकेट करियर की वहीं से की। लेकिन, जब राष्‍ट्रीय टीम के लिए खेलने की बात सामने आयी तो दक्षिण अफ्रीका में मौजूद कोटा सिस्‍टम उनके आड़े आ गया। इस वजह से उन्‍हें दक्षिण अफ्रीका के लिए खेलने का मौका नहीं मिल सका। पीटरसन ने हार नहीं मानी। और वे पहुंच गए अपनी मां के देश इंग्‍लैंड। उनके काउंटी के दिनों से ही उन्‍हें टीम मे लिए जाने की मांग उठने लगी। चार साल तक यहां कांउटी क्रिकेट में शिरकत करने के बाद उन्‍होने खुद को इंग्‍लैंड की टीम में खेलने की शर्त को पूरा किया। उसके बाद अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट के मंच पर उन्‍होने खुद को एक धमाके के साथ पेश किया।

अगस्‍त में जब माइकल वॉन के कप्‍तानी छोड़ने के बाद इंग्‍लैंड की बागडोर केविन पीटरसन के हाथों में आई। बतौर कप्‍तान अपनी पहली वनडे सीरीज में उन्‍होने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 5 मैचों की सीरीज में 4-0 से जीत हासिल की। इस जीत के पीछे पीटरसन के उस गुस्‍से को भी वजह माना गया जो उनके अंदर कहीं छिपा हुआ था। शायद वो खीझ भी थी जिसकी वजह से उन्‍हें दक्षिण अफ्रीका के लिए खेलने का मौका नहीं मिला। पीटरसन की कप्‍तानी में टीम इंग्‍लैंड के प्रदर्शन में जबरदस्‍त उछाल देखा गया। क्रिकेट के जानकार और पुराने इंग्‍लैंड खिलाडि़यों को पीटरसन के रूप में इंग्‍लैंड क्रिकेट का नया तारणहार नजर आने लगा। हालांकि उनके चाहने वालों के बीच एक जमात ऐसी भी थी जो पीटरसन को कप्‍तान बनाए जाने के खिलाफ था। और अगर पीटरसन भारत से बुरी तरह से हारकर जाते हैं जो कहीं न कहीं उन आवाजों को फिर से दम मिलेगा।

उनकी कप्‍तानी का असल इम्तिहान भारत के खिलाफ माना गया। और, यहां पर उनके दांव कामयाब होते नहीं दिख रहे। इस सब के बीच पीटरसन के चरित्र को देखते हुए एक बात तो कही जा सकती है कि वो इतनी आसानी से हार नहीं मानेंगे। बेशक सीरीज में उनके लिए अब जीत की उम्‍मीद लगभग न के बराबर हो लेकिन केपी अपनी ओर से पूरा जोर लगाएंगे कि सीरीज में रोमांच बना रहे।

Wednesday, November 19, 2008

टीम इंडिया से पहले युवराज से पार पाना होगा इंग्‍लैंड की टीम को

दो मैचों में 253 का रन औसत। दो शतक। युवराज सिंह का यह प्रदर्शन इंग्‍लैंड कप्‍तान केविन पीटरसन के लिए बड़ी चिंता का विषय है। कानपुर के ग्रीन पॉर्क में केपी के सामने सबसे बड़ी समस्‍या टीम इंडिया के युवराज से पार पाने की होगी।

भारत मल्‍होत्रा

‘मैं युवराज को होटल के बाहर ले जाउंगा और कुछ ऐसा करूंगा ताकि वो कानपुर वनडे में न खेल पाएं’- 17 नवम्‍बर को खेले गए दूसरे वनडे के बाद इंग्‍लैंड के कप्‍तान केविन पीटरसन ने भले ही यह बात मजाक में कही हो, लेकिन यह बात युवराज के प्रति इंग्‍लैंड टीम के खौफ को दिखाने के लिए काफी है। युवराज सिंह इस सीरीज से पहले फॉर्म में नहीं थे, लेकिन इंग्‍लैंड सीरीज के अब तक दोनों मैचों में युवराज ने शानदार खेल दिखाया है। पहले मैच में सिर्फ 78 गेंद में 138 रन की ताबड़तोड़ पारी खेल युवराज ने अंग्रेज गेंदबाजों के धुर्रे बिखेर दिए। दूसरे मैच में 29 के स्‍कोर पर तीन भारतीय बल्‍लेबाजों को पैवेलियन भेजने के बाद अंग्रेज टीम इंडिया को झटका देने की उम्‍मीद पालने लगे थे, लेकिन इस बार भी उनके अरमानो पर पानी फेरने का काम किया पंजाब के युवराज सिंह ने। युवराज ने एक बार फिर सैकड़ा जड़ा और भारत का स्‍कोर 290 के पार पहुंचाया। इतना होता तो भी खैर थी, लेकिन बल्‍ले के बाद युवी ने अपनी गेंदों से भी कहर बरपा दिया। उन्‍होंने चार इंग्लिश बल्‍लेबाजों को पैवेलियन की राह भेजा। तो, अब राजकोट और इंदौर के इन दो मुकाबलों के बाद इंग्‍लैंड टीम के लिए कानपुर में टीम इंडिया का युवराज सबसे बड़ा खतरा है। धोनी कहते हैं कि युवराज जब फॉर्म में होते हैं तो वे सचिन और सहवाग से ज्‍यादा आक्रामक होते हैं और दूसरी ओर इंग्‍लैंड टीम के खिलाड़ी ग्रीम स्‍वॉन खुद को बदकिस्‍मत मानते हैं क्‍यों‍कि युवराज ने उनकी टीम के खिलाफ अपनी खोयी हुई फॉर्म पाई। कानपुर मुकाबले में अंग्रेजों के सामने सबसे बड़ी चुनौती आग उगलते युवराज के बल्‍ले को शांत करने की होगी। अभी तक खेले गए दोनो मुकाबलों में केविन पीटरसन की युवराज को रोकने की हर कोशिश नाकाम साबित हुई है। उनका कोई भी गेंदबाज युवराज पर किसी भी प्रकार का दबाव बना पाने में असफल रहा है। केपी की तेज गेंदबाजों की चौकड़ी स्‍टीव हॉर्मिसन, जेम्‍स एंडरसन और स्‍टुअर्ट ब्रॉड और एंड्रयू फ्लिंटॉफ भी युवराज को बांध पाने में असफल रही। युवराज अपने मन माफिक शॉट खेलते रहे और इंग्‍लैंड टीम उनके सामने लाचार नजर आई। उन्‍हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस खब्‍बू बल्‍लेबाज को कैसे रोका जाए। युवराज भी इस अंदाज में खेलते नजर आए मानो कि पिछले काफी अर्से से चले आ रहे रनों के सूखे को अंग्रेजों के खिलाफ ही पूरा करेंगे। इंग्‍लैंड टीम के थिंक टैंक में अब जिस भारतीय खिलाड़ी को लेकर सबसे ज्‍यादा चर्चा हो रही होगी, वो बेशक युवराज सिंह ही होंगे। कोच पीटर मूर्स और कप्‍तान केविन पीटरसन इसी बात पर विचार कर रहे होंगे कि आख्रिर किस तरह से युवराज को रन बनाने से रोका जाए। आखिर टीम इंडिया का यह जाबांज उनके रास्‍ते का सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। युवराज को रोकने के लिए मेहमान टीम तमाम तरह की नीतियों पर विचार कर रही होंगी। युवराज को रोकने का सबसे आसान तरीका जो जगजाहिर है- स्पिन गेंदबाजों के खिलाफ उनका कमजोर प्रदर्शन। लेकिन, यहां पर अंग्रेजों के पास कुछ खास औजार नहीं है। इंग्‍लैंड की ओर से समित पटेल को अभी तक दो मैचों में बतौर स्पिनर खिलाया गया, लेकिन किसी भी मैच में उन्‍होने अपने कोटा के पूरे 10 ओवर नहीं फेंके। ऐसे में टीम में ग्रीम स्‍वॉन को शामिल किया जा रहा है। उम्‍मीद यही कि एक विशेषज्ञ ऑफ स्पिनर होने के नाते स्‍वॉन कुछ खास कर पाएंगे। बात तो यह भी चली कि मोंटी पनेसर को टीम का साथ देने के लिए इंग्‍लैंड से बुलाया जाए।
युवराज पर दबाव बनाने की नीति अपनाकर केपी एंड कंपनी उन्‍हें सस्‍ते में आउट करने की कोशिश कर सकती है। वो चाहेंगे कि युवराज को पारी की शुरुआत में आसानी से रन न बनाने दिए जाएं। उन्‍हें खुलकर खेलने से रोककर उनके नैचुरल फ्लो को रोकना इंग्‍लैंड की रणनीति का हिस्‍सा हो सकता है।

Wednesday, November 12, 2008

खुद से जूझते नजर आ रहे हैं द्रविड़

दीवार में दरार, ढह गयी दीवार। यह सिर्फ अखबारों और खबरों की सुर्खियां भर ही नहीं हैं। यह कहानी है भारतीय बल्‍लेबाजी क्रम की सबसे मजबूत कड़ी की। बानगी एक ऐसे बल्‍लेबाज की जिसकी
बल्‍लेबाजी की चमक पिछले 12 साल से क्रिकेट जगत में फैली हुई है।

भारत मल्‍होत्रा

राहुल द्रविड़ ने लगभग 12 साल पहले अपने कॅरियर का आगाज किया। तभी से यह नाम भारतीय क्रिकेट में भरोसे का पर्याय बने रहा। एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही नि‍श्चितंता का भाव आ जाता। नाम जो अपने आप में संपूर्णता का ही दूसरा रूप लगता। टी-20 के दौर में टेस्‍ट क्रिकेट की सादगी और कलात्‍मकता को जीते राहुल द्रविड़।

उनका डिफेंस, जिसकी काट खोज पाने में दुनिया भर के गेंदबाज पसीना बहाते देखे गए। संयम और सहनशीलता की मिसाल बनते गए राहुल द्रविड़। गेंदबाज की हर चाल का जवाब अपने धैर्य से देते रहे राहुल द्रविड़। लेकिन, अब वो राहुल द्रविड़ कहीं खो सा गया लगता है। पिछले कुछ अर्से से राहुल अपने रंग में नजर नहीं आ रहे। वो भरोसा, वो नि‍श्चिंतता अब नजर नहीं आती।

जब वो नागपुर में बल्‍लेबाजी करने उतरे तो, एक उम्‍मीद जागी। शायद यहां द्रविड़ की रंगत लौटेगी। नागपुर से राहुल का खास नाता है। यहां उनका ससुराल है। जाहिर सी बात है यहां के लोगों को उनसे कुछ खास प्रदर्शन की उम्‍मीद रही होगी। लेकिन, पहली पारी में जेसन क्रेजा की एक गेंद को द्रविड़ काबू नहीं कर पाए और फॉरवर्ड शॉट लेग खड़े साइमन कैटिच को कैच थमा बैठै। द्रविड़ ने शॉट खेलने में गलती की लेकिन, कैटिच ने उनका कैच थामने में गलती नहीं की। पैवेलियन की ओर लौटते द्रविड़ के साथ लाखों उम्‍मीदें भी लौट रही थी। यहां सिर्फ भारत का विकेट ही नहीं गिरा था बल्कि साथ ही उस भरोसे को भी ठेस पहुंची थी जो राहुल को मैदान पर देखते ही जाग उठता।

दूसरी पारी में राहुल फिर बल्‍लेबाजी करने आए। यूं लगा कि इस बार तो रन जरूर बनाएंगे। सीधा बल्‍ला और गेंद को आंख के नीचे खेलते नजर आएंगें द्रविड। लेकिन, इस बार फिर वो नाकाम रहे। शेन वॉटसन की एक गेंद जब उनके बल्‍ले का किनारा लेती हुए विकेटकीपर ब्रेड हैडिन के दस्‍तानों में गयी राहुल ने सिर्फ तीन रन बनाए थे। एक बार फिर श्रीमान भरोसेमंद भरोसों पर पूरा नही उतर पाए। वैसे अगर भारतीय बल्‍लेबाजी क्रम के फैब फोर की बात करें इस ऑस्‍ट्रेलियाई सीरीज में सभी ने अपने आप को साबित किया है। सिवाय द्रविड़ के। हालांकि श्रीलंका में यही द्रविड वीवीएस लक्ष्‍मण के अलावा एकमात्र ऐसे बल्‍लेबाज थे जिन्‍होने रन बनाने में कामयाबी हासिल की थी। लेकिन, कंगारुओं के खिलाफ अहम सीरीज में नहीं चला राहुल का बल्‍ला। वो लगातार रन बनाने के लिए जूझते नजर आए। गेंद को मानो उनसे कोई बैर हो गया कि तमाम जद्दोजेहद के बाद भी वो उन्‍हें छकाने से बाज नहीं आयी।

राहुल के साथ यह खराब फॉर्म का सिलसिला अब से नहीं पिछले काफी लंबे अर्से से चला आ रहा है। अब उनके समर्थक माने जाने वालों की ओर से भी विरोघी स्‍वर सुनाई पड रहे हैं। यह आवाजें राहुल के पिछले प्रदर्शनों को देखते हुए सही लगती हैं। गुजरे दो सालों में द्रविड़ ने 23 टेस्‍ट मैच खेले। इन मैचों की 43 पारियों में उनके बल्‍ले से सिर्फ 1065 रन निकले। औसत रहा 35 से भी कम। और तो और वे केवल दो बार सौ और सात बार पचास का आंकड़ा पार पाए। बीते दो सालों और उनके पूरे कॅरियर को अगर तराजू के दो पलड़ों में रखें तो फर्क साफ नजर आता है।

साल 2006 तक द्रविड़ ने खेले थे 106 टेस्‍ट मैच, उनका औसत रहा करीब 57 रन बनाए 9098। इसमें शामिल थे 23 शतक और 46 अर्द्धशतक। यह वह दौर था तब टेस्‍ट मैच में राहुल का बल्‍लेबाजी औसत मास्‍टर ब्‍लास्‍टर सचिन से ज्‍यादा था। लेकिन, आज रन औसत के मामले में सचिन उनसे दो कदम आगे नजर आते हैं। अगर हाल ही में खत्‍म हुई ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज की बात की जाए तो वे चार टेस्‍टों की सात पारियों में वे महज 120 रन बना पाए हैं। उनका औसत 20 से भी कम रहा है, जो उनके करियर औसत 52.87 के आसपास भी नहीं है। वे केवल एक बार पचास का आंकड़ा पार कर पाए तकनीक के बादशाह।

राहुल के बारे में कहना चाहिए कि वो बल्‍लेबाजी की बुलेट मोटरसाइकिल हैं, जिन्‍हें गरम होने में वक्‍त लगता है। वे जितना अधिक वक्‍त क्रीज पर बिताते हैं उतनी ही उनकी बल्‍लेबाजी में निखार आता है। लेकिन, बीते वक्‍त के दौरान वे क्रीज पर पांव जमाने से पहले ही उल्‍टे लौटते दिखायी देते हैं। यह राहुल नहीं हो सकते। कई बार अच्‍छी शुरुआत को भी वे बड़ी पारी में तब्‍दील नहीं कर पाते।

राहुल की लड़ाई गेंदबाज या विपक्षी टीम से नहीं, बल्कि खुद अपने आप से है। और, खुद अपने आप से लड़ाई सबसे बड़ी मु‍श्किल होती है। उससे पार पाने में सबसे ज्‍यादा मशक्‍कत करनी पड़ती है। अनिल कुंबले और सौरव गांगुली की विदाई ने राहुल द्रविड़ को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। लेकिन, हम सब चाहते हैं कि दीवार उस दृढ़ता के साथ मैदान पर नजर आए जैसा कि वो बीते कई सालों से नजर आती रही है। ताकि, फिर कोई न कह सके, 'दीवार में दरार' या ढ़ह गयी दीवार।

Friday, November 7, 2008

पारी में आठ विकेट लेकर करियर का बेहतरीन आगाज़ किया क्रेजा ने

क्रेजा का पहला टेस्‍ट। पहली ही पारी में उन्‍होने आठ विकेट अपने नाम किए। भले ही इसके लिए उन्‍हें 215 रन खर्च करने पड़े, जो रनों के मामले में सबसे मंहगा डेब्‍यू है। लेकिन, क्रेजा को इस बात का मलाल नहीं होगा।
भारत मल्होत्रा
'आई हेव डन इट', राहुल द्रविड़ के रुप में अपना पहला टेस्ट विकेट लेने के बाद शायद यही कह रहे होंगे जेसन क्रेजा। ऑस्‍ट्रेलियाई टीम के साथ भारत आए इस ऑफ स्पिनर ने अपने करियर का खूबसूरत आगाज किया। अपनी पहली ही पारी में उन्‍होंने 8 विकेट लिए। जेसन क्रेजा बतौर स्पिनर ऑस्‍ट्रेलियाई टीम की पहली पसंद नही रहे। वजह, बोर्ड प्रेसिडेंट एकादश के खिलाफ उनका निराशाजनक प्रदर्शन। इस मैच में उनके गेंदबाजी पर नजर डालिए 31-2-199-0। उनके इस प्रदर्शन ने उन्‍हें भारत दौरे के पहले तीन मैचों से दूर रखा।
लेकिन, वो हैदराबाद था और यह नागपुर। वो अभ्‍यास मैच था और यह इंटरनेशनल। विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के इस नए मैदान पर जेसन क्रेजा बिलकुल नए रंग में देखने को‍ मिले। क्रेजा ने रन तो यहां भी‍ दिए पूरे 215। पर यहां उन्‍होंने अपने खर्च किए रनों की कीमत भी भारतीय बल्‍लेबाजों से खूब वसूली। उन्‍होने एक दो नहीं बल्कि पूरे आठ विकेट झटके।
टेस्‍ट क्रिकेट में अपना ओवर फेंकने आए क्रेजा का अनुभव अच्‍छा नहीं रहा। पहले ही ओवर में वीरेंद्र सहवाग ने उन पर हमला बोल दिया। एक चौका और एक छक्‍के की मदद से 11 रन बटोरे। लगा, क्रेजा की किस्‍मत यहां भी नहीं बदलने वाली। नागपुर और हैदराबाद में कोई बदलाव नहीं होगा। लेकिन, क्रेजा के इरादे कुछ और थे। वे साफ कर चुके थे कि भले ही रन बनाओ पर अपना विकेट मुझे दे जाओ।
उनके विकेटों की शुरुआत हुई, 'द वॉल' कहे जाने वाले राहुल द्रविड़ से। राहुल एक गेंद को काबू करने में नाकामयाब रहे और फॉरवर्ड शॉट लेग पर कैटिच को कैच थमा बैठे। क्रेजा को मिला उनके टेस्‍ट करियर का पहला विकेट। इसके बाद नम्‍बर आया वीरेंद्र सहवाग का। सहवाग, जो क्रेजा पर टेढ़ी निगाह रखे हुए थे। उनकी एक अंदर आती गेंद पर सहवाग ने कट करने की को‍‍शिश की, लेकिन गेंद बल्‍ले का अंदरूनी किनारा लेती हुई विकेटों से जा टकराई। इसके बाद क्रेजा ने लक्ष्‍मण को आउट कर अपने करियर का तीसरा विकेट लिया। यह तो कहानी थी मैच के पहले दिन की।
दूसरा दिन, एक नया दिन था। लेकिन, क्रेजा के लिए यहां भी कुछ नहीं बदला। भारतीय बल्‍लेबाज उन पर रन बनाते रहे और वे बदले में उनके विकेट झटकते रहे। यह सिलसिला चलता रहा। दूसरे दिन उनका पहला शिकार बने, भारतीय कप्‍तान महेंद्र सिंह धोनी। शायद भारतीय बल्‍लेबाज क्रेजा को नजरअंदाज कर रहे थे। यही बात इस ऑफ स्पिनर के पक्ष में जाती दिखी।
अपना आखिरी टेस्ट खेल रहे सौरव गांगुली को आउट कर क्रेजा ने अपने पांच विकेट पूरे किये। वे अपनी गेदों को फ्लाइट देने से नहीं डरे। नतीजा, उन्‍हें पिच से भी मदद मिली। जहीर खान, अमित मिश्रा और ईशांत शर्मा के विकेटों के साथ ही यह संख्‍या 8 तक जा पहुंची। इस प्रदर्शन से उन्‍होंने न सिर्फ टीम में अपनी दावेदारी को ही जायज ठहराया बल्कि 500 के पार जाते दिख रही भारतीय पारी को भी 441 पर ही समेट दिया।
लेकिन, इसके साथ ही क्रेजा के नाम कुछ और रिकॉर्ड भी जुड़े। कुछ ऐसे रिकॉर्ड जो उनके इस प्रदर्शन को कमतर करके दिखाते हैं। अपने पहले ही मैच में उन्‍होंने जो 215 रन खर्च किए, वो अपने आप में एक रिकॉर्ड बन गया। अपनी पहली पारी में किसी भी गेंदबाज ने इतने ज्‍यादा रन नहीं दिए। इसके साथ ही भारतीय जमीन पर किसी भी गेंदबाज का यह सबसे मंहगा प्रदर्शन भी है। लेकिन,हर बार आंकडों के आइने में प्रदर्शन को नहीं देखना चाहिए। क्रेजा ने रन भले दिए हों, लेकिन ‍सच्‍चाई यही है कि नागपुर टेस्ट में भारतीय पारी को समेटने का काम सिर्फ और सिर्फ उन्होंने ही किया। 26 साल के इस खिलाड़ी के लिए इससे बेहतरीन आगाज़ नहीं हो सकता था।

Tuesday, November 4, 2008

मैं और मेरा कुंबले

मुझे रह-रहकर बचपन के वो दिन याद आ रहे हैं जब कभी भारतीय गेंदबाज विकेटों के लिए तरसते नजर आते तो मैं जोर से चिल्‍लाता अरे! कुंबले को दो ना यार। ऐसे मौके कम ही याद आते हैं जब कुंबले मेरी उम्‍मीदों को पूरा करने में कामयाब न रहे हों।

भारत मल्‍होत्रा

अनिल कुंबले ने अपनी छोटी बच्‍ची को गोद में उठा रखा था। उसी बीच कुंबले के सम्‍मान में मैदान में तालियां बजने लगी। वो छोटी बच्‍ची भी अपने छोटे छोटे हाथों से तालियां बजाने लगी। इस बात का अंदाजा भी शायद उसे नहीं रहा होगा कि आखिर सब लोग तालियां क्‍यों बजा रहे हैं। शायद वो बच्‍ची नहीं जानती थी कि आज वो अपने पापा के साथ मैदान पर क्‍यों है। लेकिन, चंद साल गुजर जाने के बाद जब उसके जेहन में इस पल की तस्‍वीर उभरेगी उसे अपने पिता के कद का अंदाजा होगा।

इसी बीच कुंबले की विदाई को यादगार बनाने की होड़ मच गयी। बारी थी उसे कंधे पर बैठाने की। वो आदमी जिसने बरसों बरस अपने कंधों पर भारतीय गेंदबाजी की कमान ढोयी है आज वो खुद को इस खेल से अलग कर रहा है। कुंबले के सभी साथी मैदान पर उसके आखिरी कदमों में उसके हमसफर बने रहना चा‍हते हैं। जहीर खान और राहुल द्रविड़ कुंबले को बाजुओं में उठाए दिखायी दिए। इसी बीच महेंद्र सिंह धोनी ने कुंबले को अपने कंधों पर बैठाकर मैदान में घूमे। तो, ऐसा लगा कि कहीं न कहीं यह इस बात को भी दिखा रहा है कि अब ‘धोनी कुंबले की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार हैं। शायद यही मतलब रहा भी होगा।

मैदान पर कैमरे वाले भी कुंबले इस तस्‍वीर को कैद करने में मशगूल नजर आए। आखिरी बार कुंबले इंडियन कैप पहने मैदान पर जो थे। 192 नम्‍बर लिखे हुए नीले रंग की इंडियन कैप जो पिछले 18 सालों से उनके साथ थी। उस लम्‍हे को टेलीविजन स्‍क्रीन पर देखते हुए आंखें नम हो उठी, ऐसा लगा कि जैसे कोई अपना छोड़कर जा रहा है। हालांकि, असल जिंदगी में न मेरी कुंबले से न कभी मुलाकात हुई और न ही उसे मैदान पर कभी खेलते देखा। जब कभी भी उन्‍हें देखा तो बस 21 इंच की स्‍क्रीन के पार।

कुंबले को पहले पहल मैने कब खेलते देखा यह मुझे याद नहीं आता, लेकिन क्रिकेट के मैदान पर फेंकी गयी आखिरी गेंद को भुला पाना मेरे लिए कभी भी आसान नहीं होगा। एक ऐसा खिलाड़ी जो सिर्फ अपना काम करने मैदान पर उतरता। पूरी मेहनत और सर्मपण के साथ उसे अंजाम देता और उसके बाद वापस अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में चला जाता। मेरी नजर में यही रही है अनिल कुंबले की छवि।

खेल के प्रति कुंबले के जज्‍बे का एक ताजा उदाहरण देखिए, कोटला टेस्‍ट के चौथे दिन, कुंबले की एक गेंद पर मिशेल जॉनसन ने शॉट लगाया। गेंद बल्‍ले का किनारा लेती हुई खड़ी हो गयी। कुंबले ने पीछे दौड़ते हुए उसे कैच कर दोबारा विकेट कीपर की ओर थ्रो भी किया। इसके बावजूद कि उनके बाएं हाथ की उंगली में 11 टांके लगे हुए थे। ये उस जूनून को दिखाता है जिसके साथ कुंबले ने इस खेल को जीया है।

मैन ऑफ द मैच वीवीएस लक्ष्‍मण की बात पर गौर फरमाइए, हमने आसान से कैच छोड़े और कुंबले ने ऐसा कैच किया। यह अपने आप में उनके व्‍यक्तित्‍व को बयान करता है। रिकी पोंटिंग कहते हैं कि हर ऑस्‍ट्रेलियाई जो कुंबले के खिलाफ खेला है खुद पर फक्र महसूस करता है। वो कंगारू जो विरोधियों पर हमेशा हावी होने को आतुर रहते हैं भी जंबो की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते। अब यही है कुंबले का जादू उनकी पर्सनेलिटी।

वो दिन भला कैसे कोई भूल सकता है जब कुंबले एंटीगुआ में वेस्‍टइंडीज के खिलाफ टूटे जबड़े के साथ मैदान पर उतरे। उनके इस जज्‍बे ने मुझे उनका कायल बना दिया। वो आदमी जो मैच में अपनी आखिरी गेंद भी उसी जज्‍बे के साथ फेंकता जितनी कि पहली। हर गेंद पर पूरा जोश और पूरी ताकत लगा देते नजर आते थे कुंबले। कुंबले ने मैदान पर ही खेल को अलविद कहा, भला इससे बेहतर और क्‍या हो सकता है। और अगर वो मैदान उनका अपना कोटला हो तो ये सोने पर सुहागा जैसी बात हो गयी। हर खिलाड़ी की तमन्‍ना होती है कि उसकी विदाई शानदार हो। और जो विदाई कुंबले को मिली है मेरी याद में ऐसी किसी और भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी को नहीं मिली।

मुझे रह रहकर मेरे बचपन के वो दिन याद आ रहे हैं जब कभी भारतीय गेंदबाज विकेटों के लिए तरसते नजर आते तो मैं जोर से चिल्‍लाता अरे! कुंबले को दो ना यार। मुझे ऐसे मौके कम ही याद आते हैं जब कुंबले मेरी उन उम्‍मीदों को पूरा करने में कामयाब न रहे हों। जब कभी उन्‍हें उनके शुरुआती ओवरों में विकेट मिलता तो बड़ी खुशी होती ‘अब ये अकेला ही पूरी टीम खा जाएगा’ बस यही विश्‍वास मन में जाग उठता था।

सचिन, सौरव, राहुल, लक्ष्‍मण और कुंबले। यह सिर्फ खिलाडियों के नाम भर नहीं हैं। ये क्रिकेट के एक युग की पहचान भी हैं। ये वो खिलाड़ी हैं जिन्‍हें मैदान पर उतरते देख मैने और मेरे जैसे लाखों खेल के दीवानों ने खेल को समझना शुरु किया होगा। जिनके बल्‍ले की चमक और गेंद की धार ने अनगिनत लोगों को अपनी ओर न सिर्फ खींचा बल्कि उससे बांधे भी रखा।

अपने क्रिकेट को समझने और जानने के अपने शुरुआती दौर में मैने कभी नहीं सोचा कि इन नामों के बिना भी क्रिकेट देखना होगा। यह सोचते ही मन में तरह तरह की शंकाएं उठने लगती कि जब ये नहीं होंगे तो भारतीय टीम का क्‍या होगा। हम कभी इनके बिना जीत नहीं पाएंगे। लेकिन, पहले सौरव की इस सीरीज के बाद संन्‍यास की घोषणा और अब अनिल कुंबले।

इस खबर के बाद मैने अपने दोस्‍त को फोन किया और कहा कुंबले ने संन्‍यास ले लिया। हैरान तो वो भी हुआ, फिर बोला चलो अच्‍छा हुआ। सही मौके पर फैसला ले लिया। टीम से निकाले जाने से अच्‍छा है खुद ही अलविदा कह दो। मुझे लगा सही ही कह रहा है खुद ब खुद ऐसा फैसला कर कुंबले ने अपने उस कद को ऊंचा कर लिया है जो उन्‍होने इतने साल क्रिकेट खेलने के बाद बनाया। वो समय खेल से गए जब उनके जाने की चर्चाएं गरम नहीं थी। वो टीम के साथ थे और टीम के कप्‍तान थे।

इस बीच मैं दोबारा कुछ सवालों से रु-ब-रु होता हूं । सवाल इस बार विकल्‍प को लेकर नहीं इस बात को लेकर हैं कि अ‍गला कौन? इस दौर में जब खिलाडि़यों पर मैदान से ज्‍यादा विज्ञापन जगत में रहने का आरोप लगता है कुंबले इससे बाजारवाद से काफी हद तक बचे रहे। इक्‍का दुक्‍का अपवादों को छोड़ दें तो कुंबले कम ही टीवी पर किसी उत्‍पाद के साथ जुड़े नजर आए। वे चकाचौंध से दूर रहे सिर्फ अपने काम को करते हुए। शायद, इसी वजह से वो क्रिकेट के सही मायनों में एक हीरो रहे। एक ऐसे हीरो जिसे भले ही वो पहचान और रुतबा हासिल न हुआ हो जिसका वो हकदार था लेकिन, वो कभी भी उस बात का मलाल करता नहीं दिखा।

उनके व्‍यक्तित्‍व की एक बड़ी खूबी रही उनकी सादगी। बोलने का सहज और मधुर अंदाज। प्‍यारी सी मुस्‍कुराहट उन्‍हें दिल में और भी गहरा बसा देती है। क्रिकेट अगर जेन्‍टेलमैन्‍स गेम है तो सही मायनों में कुंबले उसे पूरा करते दिखे। अपने 18 साल लंबे करियर में इस खिलाड़ी पर कभी भी किसी भी तरह का आरोप नहीं लगा। न मैच फिक्सिंग, न डोपिंग और न ही टीम को किसी भी तरह से नीचा दिखाने का। पूरी ईमानदारी और शिदद्त के साथ खेल को जीया कुंबले ने। ना वाद, न विवाद, बस अपने काम के प्रति पूरी निष्‍ठा। यही तो है अनिल कुंबले। अपने करियर के आखिरी बयान में कुंबले ने कहा कि 'मेरी चाहत है कि मुझे एक ऐसे खिलाड़ी के रूप में याद किया जाए जिसने हमेशा अपना 100 प्रतिशत दिया हो।' कुंबले की यह बात ही उनके कॅरियर की बानगी लगती है।

लेकिन जीवन का पहिया नहीं रुकता। कुंबले के जाने का मलाल तो लंबे वक्‍त तक रहेगा। लेकिन, राजकपूर साहब का एक डॉयलाग था- शो मॅस्‍ट गॉ ऑन। कुंबले तो नहीं होंगे लेकिन खेल चलता रहेगा। इस बीच एक आवाज सुनने को नहीं मिलेगी। 'बॅालिंग जंबो।'