विदेशी कोच अब एशियाई टीमों का एक अहम हिस्सा सा बन गए है। इस समय सभी एशियाई देशों को विदेशी कोच ही कोचिंग दे राहे हैं। उनके आने के साथ विवाद भले ही जुड़े हों, मगर टीमों को उनके आने से फायदा तो हुआ ही है।
साल 2003 का विश्व कप। भारतीय टीम 20 साल बाद विश्व कप के फाइनल में पहुंची थी। ऐसा नहीं था कि टीम संयोगवश ही फाइनल में पहुंची हो। टीम को इस मौके के लिए तैयार करने की तैयारी काफी समय से चल रही थी। यह वह दौर था जब भारतीय टीम सचिन के साये से निकलकर सही मायनों टीम इंडिया बन रही थी। टीम इंडिया जिसमें जीत का जज्बा था, टीम इंडिया जो मैदान पर अपने आखिरी दम तक लड़ने के लिए तैयार थी। उस समय मैन इन ब्लू को बनाने की जिम्मेदारी दो इंसानों के हाथ में थी। सौरव गांगुली और टीम इंडिया के पहले विदेशी कोच जॉन राइट। न्यूजीलैंड के इस बल्लेबाज ने सौरव गांगुली के साथ मिलकर भारतीय टीम मे आखिरी दम तक जीत के लिए जी-जान लगाने का जज्बा भरा वो उससे पहले भारतीय टीम में कभी नहीं देखा गया। विश्व कप के शुरुआती दौर में टीम के खराब प्रदर्शन के कारण काफी आलोचनाएं हुई थी। मगर, यह जीत की भूख का ही नतीजा था कि टीम ने उसके बाद लगातार जीत दर्ज करते हुए फाइनल तक सफर तय किया।
उस दौर में भारत में नए खिलाड़ी अपनी जगह बनाने के साथ साथ जिम्मेदारी भी समझ रहे थे। इसके लिए कोच की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर खिलाडियों को तराशना और उनमें विश्वास भरना कोच के काम का एक अहम हिस्सा है। एशियाई महाद्वीप में विदेशी कोचों की बात को थोड़ा और पीछे ले जाया जाए तो साल 1996 में श्रीलंका सभी संभावनाओं को झुठलाते हुए विश्व कप चैंपियन बनी थी। टूर्नामेंट से पहले श्रीलंका ने अंचभे करने तो शुरु किया था मगर उसके विश्व विजेता बनने पर कोई भी पैसा लगाने को तैयार नहीं था। मगर सनथ जयसूर्या से पारी की शुरूआत कराने का फैसला वनडे की दिशा और दशा बदलने वाला साबित हुआ। जयसूर्या ने शुरूआती 15 ओवर में तेजी से रन बनाने का जो सिलसिला शुरु किया वो आने वाले दिनों में वनडे की पहचान बन गया। इसके बाद साल 2007 में श्रीलंका विश्व कप के फाइनल तक पहुंची थी, और इस बार भी टीम की कोचिंग की जिम्मेदारी पूर्व ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी टॉम मूडी के हाथ में थी।
इन दोनो घटनाओं में एक बात समान थी वह थी विदेशी कोच का होना। अर्जुन राणातुंगा ने जब लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में विश्व कप थामा तो उस समय टीम के कोच के रूप में डेव व्हॉटमोर मौजूद थे। व्हॉटमोर ने श्रीलंकाई टीम के साथ जो तजुर्बे किए उसने न सिर्फ श्रीलंका को विश्व विजेता ही बनाया बल्कि एक बेहतर टीम बनने में भी मदद की।
इस लिहाज से अगर देखा जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप की सभी टीमों की कमान अब पिछले काफी समय से विदेशी कोचों के हाथ में है। इन कोचों की मौजूदगी में एशियाई टीमों को काफी फायदा भी हुआ है। भारत की कमान दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ी गैरी कर्स्टन के हाथ में है तो पाकिस्तान के कोच का पद जैफ लॉसन के पास है। श्रीलंका और बांग्लादेश की नजर में भी विदेशी कोच ही टीम को बेहतर रूप देने में ज्यादा कारगर साबित हो सकते हैं। अगर व्हॉटमोर को देखा जाए तो उन्होने न सिर्फ श्रीलंकाई टीम के खेल के स्तर को ऊंचा उठाया वहीं उसके बाद बांग्लादेश टीम को भी पहले से बेहतर टीम बनाया। आजकल व्हॉटमोर भारत में रहकर एनसीए के साथ काम कर रहे हैं और उन्हीं की शार्गिदगी में जूनियर टीम इंडिया विश्व कप विजेता बनकर आई।
ग्रेग चैपल का भारतीय टीम के साथ गुजारा वक्त भले ही काफी विवादों के बीच घिरा रहा हो, मगर टीम इंडिया को कई नए सितारे दिए। जिस टीम ने टी-20 विश्व कप जीता उसमें ज्यादातर खिलाड़ी ग्रेग चैपल के समय में ही भारतीय टीम के साथ जुड़े। चैपल ने आते ही भविष्य की टीम बनाने पर नजर रखी और नए चेहरों को टीम में मौका देना शुरू किया। सुरेश रैना उनमें से एक नाम है जो चैपल के वक्त में टीम इंडिया का हिस्सा बने। दरअसल, चैपल शुरू से नए खिलाडियों और नए सितारों को टीम में मौका देने के पक्षधर रहे। उन्हीं के कोच रहते भारत ने रनो का पीछा करते हुए लगातार 17 वनडे जीतने का रिकॉर्ड बनाया। ग्रेग चैपल भारतीय टीम के साथ भले ही न हों मगर भारत के साथ अभी भी जुड़े हुए हैं। चैपल फिलहाल राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के साथ जुड़े हुए हैं।
पहला आईपीएल टूर्नामेंट जीतने वाली टीम के खिलाडियों को ढूढने का जिम्मा भी चैपल ने ही तो संभाला था। वैसे, आईपीएल की भी अगर बात की जाए तो वहां भाग ले रही सभी टीमों में विदेशी खिलाड़ी या तो कोच के तौर पर काम कर रहे थे या फिर वे बतौर सलाहकार टीमों के साथ जुडें थे। फिर चाहे वो ऊपरी दो पायदानों पर रही राजस्थान रॉयल्स और चेन्नई सुपरकिंग्स रही हो या फिर सबसे नीचे रही बंगलौर रॉयल चैंलेजर्स और डेक्कन चार्जर्स। हर जगह विदेशी कोचों ही नजर आए। यह बात साफ करती है कि क्रिकेट के इस नए प्रारूप जिसकी शुरुआत भारत में भारतीयों द्वारा की गई में भी विदेशी कोचों का ही बोलबाला रहा है।
यह विदेशी कोच खेल में बेहतर प्रोफेशनल रवैये के साथ आते हैं जहां खिलाड़ी के नाम की बजाए उनके प्रदर्शन को ज्यादा तरजीह दी जाती है। यहां नाम से ज्यादा काम की कीमत समझी जाती है। वे नई सोच के साथ आते हैं और उस सोच को पूरा करने के लिए उनके पास पूरी रणनीति भी होती है। ज्यादातर मामलों में टीम को उससे फायदा ही हुआ है।
साल 2003 का विश्व कप। भारतीय टीम 20 साल बाद विश्व कप के फाइनल में पहुंची थी। ऐसा नहीं था कि टीम संयोगवश ही फाइनल में पहुंची हो। टीम को इस मौके के लिए तैयार करने की तैयारी काफी समय से चल रही थी। यह वह दौर था जब भारतीय टीम सचिन के साये से निकलकर सही मायनों टीम इंडिया बन रही थी। टीम इंडिया जिसमें जीत का जज्बा था, टीम इंडिया जो मैदान पर अपने आखिरी दम तक लड़ने के लिए तैयार थी। उस समय मैन इन ब्लू को बनाने की जिम्मेदारी दो इंसानों के हाथ में थी। सौरव गांगुली और टीम इंडिया के पहले विदेशी कोच जॉन राइट। न्यूजीलैंड के इस बल्लेबाज ने सौरव गांगुली के साथ मिलकर भारतीय टीम मे आखिरी दम तक जीत के लिए जी-जान लगाने का जज्बा भरा वो उससे पहले भारतीय टीम में कभी नहीं देखा गया। विश्व कप के शुरुआती दौर में टीम के खराब प्रदर्शन के कारण काफी आलोचनाएं हुई थी। मगर, यह जीत की भूख का ही नतीजा था कि टीम ने उसके बाद लगातार जीत दर्ज करते हुए फाइनल तक सफर तय किया।
उस दौर में भारत में नए खिलाड़ी अपनी जगह बनाने के साथ साथ जिम्मेदारी भी समझ रहे थे। इसके लिए कोच की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर खिलाडियों को तराशना और उनमें विश्वास भरना कोच के काम का एक अहम हिस्सा है। एशियाई महाद्वीप में विदेशी कोचों की बात को थोड़ा और पीछे ले जाया जाए तो साल 1996 में श्रीलंका सभी संभावनाओं को झुठलाते हुए विश्व कप चैंपियन बनी थी। टूर्नामेंट से पहले श्रीलंका ने अंचभे करने तो शुरु किया था मगर उसके विश्व विजेता बनने पर कोई भी पैसा लगाने को तैयार नहीं था। मगर सनथ जयसूर्या से पारी की शुरूआत कराने का फैसला वनडे की दिशा और दशा बदलने वाला साबित हुआ। जयसूर्या ने शुरूआती 15 ओवर में तेजी से रन बनाने का जो सिलसिला शुरु किया वो आने वाले दिनों में वनडे की पहचान बन गया। इसके बाद साल 2007 में श्रीलंका विश्व कप के फाइनल तक पहुंची थी, और इस बार भी टीम की कोचिंग की जिम्मेदारी पूर्व ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी टॉम मूडी के हाथ में थी।
इन दोनो घटनाओं में एक बात समान थी वह थी विदेशी कोच का होना। अर्जुन राणातुंगा ने जब लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में विश्व कप थामा तो उस समय टीम के कोच के रूप में डेव व्हॉटमोर मौजूद थे। व्हॉटमोर ने श्रीलंकाई टीम के साथ जो तजुर्बे किए उसने न सिर्फ श्रीलंका को विश्व विजेता ही बनाया बल्कि एक बेहतर टीम बनने में भी मदद की।
इस लिहाज से अगर देखा जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप की सभी टीमों की कमान अब पिछले काफी समय से विदेशी कोचों के हाथ में है। इन कोचों की मौजूदगी में एशियाई टीमों को काफी फायदा भी हुआ है। भारत की कमान दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ी गैरी कर्स्टन के हाथ में है तो पाकिस्तान के कोच का पद जैफ लॉसन के पास है। श्रीलंका और बांग्लादेश की नजर में भी विदेशी कोच ही टीम को बेहतर रूप देने में ज्यादा कारगर साबित हो सकते हैं। अगर व्हॉटमोर को देखा जाए तो उन्होने न सिर्फ श्रीलंकाई टीम के खेल के स्तर को ऊंचा उठाया वहीं उसके बाद बांग्लादेश टीम को भी पहले से बेहतर टीम बनाया। आजकल व्हॉटमोर भारत में रहकर एनसीए के साथ काम कर रहे हैं और उन्हीं की शार्गिदगी में जूनियर टीम इंडिया विश्व कप विजेता बनकर आई।
ग्रेग चैपल का भारतीय टीम के साथ गुजारा वक्त भले ही काफी विवादों के बीच घिरा रहा हो, मगर टीम इंडिया को कई नए सितारे दिए। जिस टीम ने टी-20 विश्व कप जीता उसमें ज्यादातर खिलाड़ी ग्रेग चैपल के समय में ही भारतीय टीम के साथ जुड़े। चैपल ने आते ही भविष्य की टीम बनाने पर नजर रखी और नए चेहरों को टीम में मौका देना शुरू किया। सुरेश रैना उनमें से एक नाम है जो चैपल के वक्त में टीम इंडिया का हिस्सा बने। दरअसल, चैपल शुरू से नए खिलाडियों और नए सितारों को टीम में मौका देने के पक्षधर रहे। उन्हीं के कोच रहते भारत ने रनो का पीछा करते हुए लगातार 17 वनडे जीतने का रिकॉर्ड बनाया। ग्रेग चैपल भारतीय टीम के साथ भले ही न हों मगर भारत के साथ अभी भी जुड़े हुए हैं। चैपल फिलहाल राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के साथ जुड़े हुए हैं।
पहला आईपीएल टूर्नामेंट जीतने वाली टीम के खिलाडियों को ढूढने का जिम्मा भी चैपल ने ही तो संभाला था। वैसे, आईपीएल की भी अगर बात की जाए तो वहां भाग ले रही सभी टीमों में विदेशी खिलाड़ी या तो कोच के तौर पर काम कर रहे थे या फिर वे बतौर सलाहकार टीमों के साथ जुडें थे। फिर चाहे वो ऊपरी दो पायदानों पर रही राजस्थान रॉयल्स और चेन्नई सुपरकिंग्स रही हो या फिर सबसे नीचे रही बंगलौर रॉयल चैंलेजर्स और डेक्कन चार्जर्स। हर जगह विदेशी कोचों ही नजर आए। यह बात साफ करती है कि क्रिकेट के इस नए प्रारूप जिसकी शुरुआत भारत में भारतीयों द्वारा की गई में भी विदेशी कोचों का ही बोलबाला रहा है।
यह विदेशी कोच खेल में बेहतर प्रोफेशनल रवैये के साथ आते हैं जहां खिलाड़ी के नाम की बजाए उनके प्रदर्शन को ज्यादा तरजीह दी जाती है। यहां नाम से ज्यादा काम की कीमत समझी जाती है। वे नई सोच के साथ आते हैं और उस सोच को पूरा करने के लिए उनके पास पूरी रणनीति भी होती है। ज्यादातर मामलों में टीम को उससे फायदा ही हुआ है।
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