Monday, September 22, 2008

नए जरूर हैं मगर कमजोर नहीं हैं कंगारू

टीम ऑस्‍ट्रेलिया बॉर्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी खेलने के लिए भारत आ चुकी है। सीरीज शुरू होने से पहले ऑस्‍ट्रेलियन टीम मैनेजमेंट की ओर से लगातार ऐसे बयान आ रहे हैं जो टीम के अनुभवहीन होने की ओर इशारा करती हैं। हो सकता है यह बात कई मायनों में सही हो, लेकिन इसके दूसरे पहलू की ओर देखें तो एक अलग ही तस्‍वीर उभर कर सामने आती है।
ऑस्‍ट्रेलिया की मौजूदा टीम में केवल मैथ्‍यू हेडन, माइकल क्‍लार्क, कप्‍तान पोंटिंग और साइमन कैटिच ही ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्‍होंने भारत में टेस्‍ट मैच खेला है। 15-सदस्‍यीय इस टीम में चार खिलाड़ी तो ऐसे हैं, जिन्‍होंने ऑस्‍ट्रेलिया के लिए अभी तक कोई टेस्‍ट मैच नहीं खेला है। मगर इसके बावजूद इन्‍हें अनुभवहीन कहना तथ्‍यों का एकपक्षीय मूल्‍यांकन हो सकता है। टीम में शामिल माइकल हसी, फिल जैक्‍स, डॉग बालिंगर जैसे तमाम ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके पास घरेलू स्‍तर पर काफी अनुभव है। बॉलिंगर ने फर्स्‍ट क्‍लास क्रिकेट में 45 मैचों में 137 विकेट हासिल किए हैं, जो इस बाएं हाथ के तेज गेंदबाज की क्षमता को बताता है। बॉलिंगर वर्तमान में भारत दौरे पर आई ऑस्‍ट्रेलिया 'ए' टीम में भी शामिल हैं। जस्टिन लेंगर के संन्‍यास के बाद टीम में शामिल किए गए फिल जैक्‍स ओपनिंग में मैथ्‍यू हेडन के नए जोड़ीदार हैं। जैक्‍स भारतीय दर्शकों के लिए नए हो सकते हैं, लेकिन उन्‍होंने घरेलू मुकाबलों में 11605 रन बनाए हैं। टेस्‍ट मैचों में भी उनका औसत 45 से ज्‍यादा है। माइकल हसी ने भले ही भारत में कोई टेस्‍ट मैच न खेला हो मगर उनकी बल्‍लेबाजी क्षमता से हर कोई वाकिफ है। टेस्‍ट मैचों में उनकी बल्‍लेबाजी का औसत 68 के ऊपर है, जो डॉन ब्रैडमेन के बाद दूसरा सबसे अच्‍छा औसत है। इसके अलावा ऑस्‍ट्रेलिया के घरेलू मैचों में हसी करीब 18 हजार रन बना चुके हैं।एंड्रयू सायमंड्स की अनुपस्थिति में टीम में ऑलराउंडर की हैसियत से शामिल किए गए शेन वाटसन आईपीएल के दौरान 'प्‍लेयर ऑफ द टूर्नामेंट' रहे थे। अब भारत में टेस्‍ट मैच खेलने के नाम पर उनके पास अनुभव भले न हो, मगर बल्‍ले और गेंद से उनकी क्षमता मैच का रुख बदलने का माद्दा रखती है। गेंदबाजी की कमान संभाल रहे ब्रेट ली किसी पहचान के मोहताज नहीं है। ली ने भारत में टेस्‍ट मैच भले न खेले हों, मगर वह ऑस्‍ट्रेलिया के लिए 68 टेस्‍ट मैच खेल चुके हें। इसके अलावा भारत में 12 वनडे और आईपीएल के चार मैचों का तर्जुबा भी उनके साथ है। टीम में शामिल मिशेल जॉनसन भी भारतीय बल्‍लेबाजी के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं। जॉनसन ने बड़ोदरा में खेले गए एक वनडे मैच में 10 ओवरों में 26 रन देकर पांच भारतीय बल्‍लेबाजों को अपना शिकार बनाया था। हालांकि भारत में टेस्‍ट मैच खेलने के नाम पर उनका भी खाता खाली है। स्‍टुअर्ट क्‍लॉर्क अपनी लाइन और लैंग्‍थ से बल्‍लेबाजों के लिए परेशानी का सबब बनते रहे हैं। भारत में पहली बार टेस्‍ट मैच खेलने से पहले क्‍लॉर्क 18 टेस्‍ट मैचों में 81 विकेट लेकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं। विकेटकीपिंग मे एडम गिलक्रिस्‍ट के संन्‍यास लेने के बाद टीम में आए ब्रेड हैडिन के घरेलू खाते में 5 हजार से ज्‍यादा रन बनाना उनकी प्रतिभा को दिखाता है। वैसे खुद को गिलक्रिस्‍ट के दस्‍तानों में फिट कर पाना हैडिन के लिए किसी चैलेंज से कम नहीं होगा। कुल मिलाकर यह तो माना जा सकता है कि भारत दौरे पर आई ऑस्‍ट्रेलिया की यह टीम उसकी सर्वश्रेष्‍ठ टीम नहीं है, लेकिन अनुभवहीन कहकर उसे सिरे से खारिज करना खतरनाक हो सकता है।सिर्फ अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट का अनुभव ही अच्‍छे प्रदर्शन का पैमाना नहीं होता। जहां तक ऑस्‍ट्रेलियन टीम मैनेजमेंट की बात है, तो ये बयान उनके माइंड गेम का नया रूप हो सकता है। उनका यह प्रयास भारतीय टीम को कंफर्ट जोन में धकेलने के बाद उन पर चोट करने की रणनीति का एक हिस्‍सा हो सकता है। भारत को इस बात का ख्‍याल रखना पड़ेगा कि वे किसी भी लिहाज से कंगारूओं को हल्‍के में लेने की भूल न करे वरना, कहीं साल 2005 का इतिहास दोहराया न जाए।

Sunday, September 21, 2008

भारत बनाम ऑस्‍ट्रेलिया, सबसे बड़ा मुकाबला

पिछले कुछ सालों में भारत-ऑस्‍ट्रेलिया मुकाबलों में क्रिकेट का जो रोमांच और शानदार स्‍तर देखने को मिला है, उसके आगे दूसरी श्रृंखलाओं की चमक फीकी पड़ गई है। चाहे वह ऑस्‍ट्रेलिया-इंग्‍लैंड की एशेज सीरीज हो या फिर भारत-पाक सीरीज। आज की तारीख में बिना शक कहा जा सकता है कि भारत-ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज दुनिया की सर्वश्रेष्‍ठ बन गई है।
साल 2008 तारीख 9 अक्‍टूबर टेस्‍ट क्रिकेट के इतिहास का एक अहम दिन, जब भारत और ऑस्‍ट्रेलिया की टीमें जब बार्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी पर कब्‍जा जमाने के लिए आमने-सामने होंगी। क्रिकेट का रोमांच अपने चरम पर होगा। दोनों देशों के बीच हुए पिछले मुकाबलों को देखते हुए यह उम्‍मीद करना बेमानी नहीं होगा। पूरी दुनिया में खेली जा रही क्रिकेट पर नजर डालें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत-ऑस्‍ट्रेलिया का मुकाबला दुनिया का सबसे बड़ा और कड़ा मुकाबला हो गया है। इस सीरीज में एक ओर ऑस्‍टेलिया है, जो विश्‍व क्रिकेट के शिखर काबिज है तो दूसरी ओर भारत है, जो क्रिकेट में ऑस्‍ट्रेलियाई सत्‍ता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

भारत और ऑस्‍ट्रेलिया के बीच खेली जा रही यह सीरीज कितनी बड़ी है, इस बात का अंदाजा दोनों ओर से हो रही बयानबाजी से ही लगाया जा सकता है। ऑस्‍ट्रेलिया के पूर्व और वर्तमान दोनो ही खिलाड़ी इसे इंग्‍लैंड के साथ होने वाले अपने सबसे पुराने मुकाबले ‘एशेज’ से भी बड़ी मान रहे हैं। जी हां, साइमन कैटिच हों या‍ एडम गिलक्रिस्‍ट हां या फिर और भी पहले के खिलाड़ी और श्रीलंका के पूर्व कोच डेव वॉटमोर, इन सबका यही कहना है। वहीं दुनिया के महानतम बल्‍लेबाजों में से एक सचिन तेंदुलकर इसे सांस थमा देने वाले भारत-पाकिस्‍तान के मुकाबले से बड़ा मानते हैं। अगर सचिन और गिलक्रिस्‍ट जैसे धुरंदर यह बात कहते हैं इस बात में दम होना लाजमी है।

भारत-ऑस्‍ट्रेलिया के बाच खेले गए मैचों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है। 1996 में शुरू हुई बार्डर-गावस्‍कर ट्राफी अभी तक सात बार खेली गई है, जिसे भारत और ऑस्‍ट्रेलिया दोनों ने 3-3 बार जीता है। 2003-04 में यह सीरीज 1-1 से ड्रा रही थी। इसमें अभी तक कुल 22 मैच खेले गए हैं जिनमें से 10 बार आस्‍ट्रेलिया विजयी रहा है और 8 बार भारत ने जीत का स्‍वाद चखा है, ज‍बकि 4 मैच ड्रा रहे। ये आंकड़े दोनों देशों के बीच कड़ी प्रतिस्‍पर्द्धा की तस्‍वीर पेश करते हैं। सचिन-वार्न, द्रविड़-मॅक्‍ग्राथ, हरभजन-पोंटिंग, लक्ष्‍मण-गिलेस्‍पी, कुंबले-गिलक्रिस्‍ट के बीच संघर्ष को भला कौन भूल सकता है। इनमें से कई नाम इस बार नहीं हैं, लेकिन इस बार भी वहीं संघर्ष होने की उम्‍मीद है, भले ही इसमें पात्र बदल जाएं।
दोनो टीमों के बीच की जंग अब सिर्फ बल्‍ले और गेंद तक ही सिमट कर नहीं रह गई है। स्‍लेजिंग की जिस कला में ऑस्‍ट्रेलियाई महारथ रखते हैं, भारत उसमें भी उन्‍हें बराबरी की टक्‍कर दे रहा है। भारत लगातार ऑस्‍ट्रेलिया की सत्‍ता को चुनौती दे रहा है, उसके नजदीक पहुंच रहा है और इस बात से कंगारू भी वाकिफ हैं। दोनों देशों के खिलाडियों को भी यह अच्‍छी तरह पता है कि मुकाबला काफी अहम है। इसलिए खिलाड़ी इसमें अपनी पूरी ताकत झोंकने को तैयार रहते हैं। भारत जानता है कि विश्‍व चैंपियन को हराने का क्‍या मतलब होता है। वहीं ऑस्‍ट्रेलिया को भी पता है कि भारत को उसके घर में हराना सबसे मुश्किल काम है।

भारत-ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज की चमक बढ़ने की वजहें हैं। ऐसा कोई एक दिन में नहीं हुआ है। पहले ऐशेज को दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित सीरीज होने का रुतबा हासिल था। लेकिन, पिछले दो दशक के दौरान ऑस्‍ट्रेलिया की मजबूत होती गई, तो इंग्‍लैंड पिछड़ता गया। लिहाजा, एशेज एकतरफा मुकाबला बनके रह गया और इसकी चमक फीकी पड़ गई। 2005 में 16 साल बाद इंग्‍लैंड ने ऑस्‍ट्रेलिया को हराकर थोड़ी उम्‍मीद जगाई थी, लेकिन यह जीत सिर्फ तुक्‍का ही साबित हुई। ऑस्‍ट्रेलिया ने अगली एशेज में इंग्‍लैंड को 5-0 से धो दिया। एक मौके को छोड़ दिया जाए तो पिछले दो दशक में एशेज एकतरफा शो ही रहा है।

कुछ सालों पहले तक भारत-पाकिस्‍तान के बीच मुकाबलों को क्रिकेट से ज्‍यादा एक जंग के तौर पर देखा था। इन दोनों देशों के मैच दुनिया में सबसे ज्‍यादा देखे जाते थे। इन मैचों में दोनों देशों के अप्रिय सियासी रिश्‍तों की बानगी देखने को मिलती थी। ऐसा लगता था कि मैच में हार-जीत नहीं, दोनों देशों की किस्‍मत दांव पर लगी है। सन् 1986 में शारजाह में हुए ऑस्‍ट्रेलेशिया कप के फाइनल में चेतन शर्मा द्वारा फेंकी गई मैच की आखिरी गेंद पर जावेद मियांदाद के छक्‍के ने इस तनाव भरे रोमांच को एक नया आयाम दे दिया। भारत उस हार से लंबे अर्से तक नहीं उबर पाया। लेकिन, वक्‍त के साथ दोनों देशों के सियासी रिश्‍तों और क्रिकेट मैच, दोनों के उबाल में कमी आ गई और क्रिकेट जंग के बजाए एक खेल में तब्‍दील होता नजर आने लगा। ऐसा नहीं है कि भारत-पाक मुकाबलों का रोमांच कम हो गया है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वह तनाव अब उस रूप में नहीं है।

भारत-ऑस्‍ट्रेलिया के बीच जबर्दस्‍त स्‍पर्द्धा को देखते हुए यह कहना बेमानी नहीं होगा कि एशेज का रुतबा और भारत-पाक मुकाबलों का तनाव, दोनों अब बार्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी के साथ जुड़ गए हैं। यही वजह है कि दुनिया भर के क्रिकेटप्रेमियों की निगाहें इस सीरीज पर लगी हुई हैं।

Thursday, September 18, 2008

बल्‍लेबाजी की अहम कड़ी है नम्‍बर सात


टेस्‍ट क्रिकेट में नंबर सात का बल्‍लेबाज हमेशा से महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। रिचर्ड हेडली, इयान बॉथम, इमरान, कपिल, गिलक्रिस्‍ट और धोनी जैसे बल्‍लेबाजों ने इस नंबर पर बल्‍लेबाजी कर अपनी टीम को जीत दिलाई है, तो कई मौकों पर अपनी टीम को हारने से भी बचाया है। इसीलिए बल्‍लेबाजी में इस क्रम को काफी क्रिटिकल माना जाता है।


जनवरी 1937, ऑस्‍ट्रेलिया और इंग्‍लैंड एशेज के तीसरे टेस्‍ट में आमने-सामने। दूसरी पारी में महज 97 रन पर ऑस्‍ट्रेलिया की आधी टीम पविलियन लौट चुकी थी। इस वक्‍त बल्‍लेबाजी करने आते हैं सर डॉन ब्रेडमैन। दूसरे छोर पर फिंगलेटन बल्‍लेबाजी का मोर्चा संभाले खड़े हैं। इंग्‍लैंड को मैच में वापसी की सुगंध आने लगी है, मगर ब्रेडमैन ऐसे मौके पर 270 रनों की पारी खेलते हैं। जब फिंगलेटन के आउट होने के बाद यह साझेदारी टूटती है तो टीम का स्‍कोर 443 रन तक पहुंच चुका होता है। ऑस्‍ट्रेलिया 564 रनों का विशाल स्‍कोर बनाकर इंग्‍लैंड के लिए वापसी के सभी रास्‍ते बंद कर देता है। ऑस्‍ट्रेलिया मैच 365 रनों से जीत लेता है।
अगस्‍त 2007, लॉर्डस के मैदान पर भारत और इंग्‍लैंड आमने-सामने। पहली पारी में भारत 97 रनों से पिछड रहा भारत दूसरी पारी में भी 145 के स्‍कोर पर पांच विकेट खोकर भारत संकट में आ गया था। इस मौके पर धोनी आते हैं। वे पुछल्‍ले बल्‍लेबाजों के साथ मिलकर टीम के स्‍कोर को 282 तक ले जाते हैं और भारत को एक निश्चित सी लग रही हार के मुंहाने से वापस लाते हैं। अपनी 92 रनों की पारी के दौरान विकेट को मजबूती से थामे रहते हैं। इंग्‍लैंड और जीत के बीच वे चट्टान की तरह अड़े रहते हैं।
साल 2006, भारत और पाकिस्‍तान अपनी चिर परिचित प्रति‍द्वंदिता के बीच आमने सामने। पाकिस्‍तान के 588 रनों के जवाब में भारत तेंदुलकर का विकेट खोकर (281/5) संकट की स्थिति में। इन हालात में इरफान पठान नंबर 7 पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। इस स्थिति महेंद्र सिंह धोनी और इरफान पठान के बीच 210 की साझेदारी ने न सिर्फ टीम को फॉलोऑन से बचाया, बल्कि मैच ड्रॉ करवाने में भी अहम भूमिका निभाई।
भले ही इन उदाहरणों में करीब सत्‍तर सालों का लंबा अंतराल है, लेकिन एक बात तीनों में साझा है। और वो है नंबर सात के बल्‍लेबाजों की भूमिका, जिन्‍होंने विकेट पर टिक कर या तो अपनी टीम को जीत दिलाई या फिर हार को टालने में अहम भूमिका निभाई।
दरअसल, टेस्‍ट मैचों में किसी भी टीम के बैटिंग ऑर्डर नम्‍बर सात बहुत अहम होता है। अगर कहा जाए कि इस क्रम पर खेलने वाले बल्‍लेबाज अपनी टीम के संकटमोचक होते हैं, तो गलत नहीं होगा। यह वो बल्‍लेबाजी क्रम है, जहां खेलने वाले बल्‍लेबाज अक्‍सर दोहरी भूमिकाएं निभाते हैं। वर्तमान समय में टीमों के बल्‍लेबाजी क्रम को देखें तो ज्‍यादातर विकेटकीपर यह भूमिका निभा रहे हैं। भारत में महेंद्र सिंह धोनी, पाकिस्‍तान में कामरान अकमल, इंग्‍लेंड में मैट प्रायर, न्‍यूजीलैंड में ब्रेंडन मॅक्‍कुलम, दक्षिण अफ्रीका में मार्क बाउचर, इस नंबर पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं और इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी अपनी टीम की बल्‍लेबाजी के मजबूत स्‍तंभ हैं। गिलक्रिस्‍ट के संन्‍यास के बाद उनकी जगह ब्रैड हेडिन ने ली है, और इस बात की ज्‍यादा उम्‍मीद है कि वे भी नंबर सात पर ही बल्‍लेबाजी करेंगे। श्रीलंका में भी अब कुमार संगकारा कुछ दिनों से विशेषज्ञ बल्‍लेबाज की भूमिका में हैं और उनकी जगह विकेटकीपिंग का जिम्‍मा प्रसन्‍ना जयवर्द्धने निभा रहे हैं, जो नंबर सात पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। बांग्‍लादेश के विकेटकीपर मुशफिकुर रहमान, वेस्‍टइंडीज के विकेटकीपर दिनेश रामदीन भी इसी क्रम पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। जिम्‍बाब्‍वे के विकेटकीपर टेटेंडा तायबू भी पहले इसी क्रम पर काफी मैचों में बल्‍लेबाजी कर चुके हैं।
इस क्रम पर सर रिचर्ड हेडली, सर इयान बॉथम, कपिल देव और इमरान खान जैसे महान ऑलराउंडर भी बल्‍लेबाजी कर चुके हैं और यह बताने की जरूरत नहीं कि कई मौकों पर इन्‍होंने अपनी बल्‍लेबाजी मैच का रूख पलट दिया।
टेस्ट क्रिकेट में नम्‍बर नम्‍बर सात पर बल्‍लेबाजी करना हमेशा से ही काफी नाजुक और चुनौतीपूर्ण काम रहा है। इस नंबर पर खेलने तब बल्‍लेबाजी करने आते हैं, जब टीम का टॉप ऑर्डर पवेलियन जा चुका होता है और दूसरी नई गेंद या तो तुरंत ले ली गई हो ती है या फिर ली जाने वाली होती है। ऐसे में नंबर सात को निचले क्रम के बल्‍लेबाजों के साथ मिलकर टीम के स्‍कोर को आगे ले जाना होता है। चूंकि उसे ज्‍यादातर मौकों पर नई गेंद का सामना करना पड़ता है, तो उसे तकनीकी रूप से भी काफी दक्ष होना पड़ता है। कई बार ऐसा होता है कि टीम का ऊपरी क्रम लड़खड़ाने के बाद नम्‍बर सात के बल्‍लेबाज ने शानदार बल्‍लेबाजी कर अपनी टीम की नैया को पार लगाया। नम्‍बर तीन का बल्‍लेबाज जहां पारी को संवारने का काम करता है, वहीं नम्‍बर सात का काम अच्‍छे स्‍कोर को बड़े स्‍कोर में बदलना होता है या फिर टीम जब संकट में हो तो उसे उबारना होता है।
नम्‍बर सात के महत्‍व का अंदाजा भारत-श्रीलंका टेस्‍ट सीरीज से ही लगाया जा सकता है। टेस्‍ट मैचों में भारतीय बल्‍लेबाज मेंडिस के सामने लाचार नजर आए, लेकिन वनडे में टीम इंडिया के कप्‍तान धोनी के पास मेंडिस के हर तीर का जवाब था। इसकी वजह से मेंडिस अपना टेस्‍ट मैचों का रिकॉर्ड प्रदर्शन की सफलता को दोहरा पाने में असफल रहे। नतीजा, भारत ने यह सीरीज 3-2 से जीत ली। धोनी ने इसमें सबसे बड़ी भूमिका अदा की। हालांकि, धोनी वनडे में अमूमन 5 या 6 नंबर पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। लेकिन, टेस्‍ट में धोनी का बल्‍लेबाजी क्रम सात ही होता है। उनकी गैरमौजूदगी में कार्तिक और पार्थिव ने नंबर सात पर बल्‍लेबाजी की, लेकिन उनकी असफलता ने भारत की मुश्किलें बढ़ा दीं। अगर धोनी होते तो शायद प्रदर्शन कुछ बेहतर होता।
नम्‍बर सात एक ऐसा बल्‍लेबाजी क्रम है, मध्‍यक्रम और निचले क्रम के बीच की कड़ी होता है। अगर उसके साथ दूसरे छोर पर एक टॉप ऑर्डर का कोई बल्‍लेबाज होता है तो उसका काम टॉप ऑर्डर के बल्‍लेबाज का साथ देना होता है। वहीं अगर उसके साथ पुछल्‍ले बल्‍लेबाज खड़े हों, तो वह सपोर्टिंग के बदले लीड किरदार में आ जाता है। अगर कहा जाए कि नंबर सात किसी भी टीम का खेल बनाने और बिगाड़ने की क्षमता रखता है तो गलत नहीं होगा। यह बात कई मौकों पर साबित भी हुई है।

Wednesday, September 17, 2008

बांग्‍लादेश क्रिकेट को लगा जोरदार झटका

बांग्‍लादेश के पूर्व कप्‍तान हबीबुल बशर के नेतृत्‍व में राष्‍ट्रीय टीम में शामिल छह क्रिकेटरों सहित 13 क्रिकेटरों के बागी ट्वेंटी-20 लीग आईसीएल में शामिल हो जाने से बांग्‍लादेश क्रिकेट संकट में आ गया है। इस घटना ने बांग्‍लादेश में क्रिकेट के भविष्‍य पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं।
संकट से घिरे देशों में खेल महज खेल भर नहीं होता, बल्कि वहां के लोगों के लिए जीवन के दुख-दर्द को भुलाने का एक जरिया होता है। कभी प्रकृति की मार, तो कभी राजनीतिक संकट रुबरु होते रहने वाला करीब 15 करोड़ की आबादी वाला बांग्‍लादेश भी इसका एक उदाहरण है। कभी फुटबॉल के दीवाने रहे बांग्‍लादेश के लोगों के लिए पिछले कुछ सालों में क्रिकेट एक ऐसे खेल के रूप में उभरा है, जिसे यहां के लोग अपनी परेशानियों को भुलाने के एक माध्‍यम के रूप में देखते हैं। इस खेल के जरिये अपनी पहचान को ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। वर्ल्‍डकप में पाकिस्‍तान और भारत जैसी मजबूत टीमों पर जीत हो या या फिर वनडे सीरीज में वर्ल्‍ड चैंपियन ऑस्‍ट्रेलिया पर जीत, ये कुछ ऐसे लम्‍हे हैं, जो रोजमर्रा के जीवन में परेशानियों से रुबरु होते बहुसंख्‍यक बांग्‍लादेशियों को गौरवान्वित होने का मौका देते हैं। इसलिए क्रिकेट की अहमियत आज इस देश में दिनोंदिन बढ़ रही है।
लेकिन, पिछले दो-तीन दिनों के घटनाक्रम से बांग्‍लादेश क्रिकेट को काफी धक्‍का पहुंचा है। बांग्‍लादेश के छह वर्तमान क्रिकेटरों सहित 13 क्रिकेट खिलाडियों ने देश के बजाए आईसीएल में खेलने का फैसला किया है। इस घटना ने क्रिकेट जगत में अपनी पहचान को गढ़ने की कोशिश कर रहे बांग्‍लादेश को सकते में ला दिया है। इससे उसकी टीम के और भी कमजोर हो जाने का अंदेशा है। वैसे भी पहले से ही बांग्‍लादेश को टेस्‍ट दर्जा दिए जाने पर सवाल उठते रहे हैं। लिहाजा, इस घटना से संकट और गहरा गया है। बांग्‍लादेश क्रिकेट इससे उबरने की जी-तोड़ कोशिश में लगा है। इन कोशिशों में खिलाडि़यों के मान-मनौव्‍वल से लेकर सजा देने की घोषणा तक शामिल है। बांग्‍लादेशी बोर्ड ने अपने उन खिलाडि़यों पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया है जो आईसीएल से जुड़ रहे हैं। लेकिन, इससे समस्‍या का समाधान होने की उम्‍मीद कम ही दिखती है। कल को कुछ और बांग्‍लादेशी क्रिकेटर पैसे की वजह से इसमें शामिल हो सकते हैं।

वैसे तो बांग्‍लादेश में घरेलू क्रिकेट का ढांचा ठीक है। भारत, श्रीलंका, पाकिस्‍तान और इंग्‍लैंड के खिलाड़ी भी समय-समय पर वहां जाकर खेलते रहे हैं। मगर, साल 2000 में अपना पहला टेस्‍ट मैच खेलने वाली बांग्‍लादेश की टीम क्रिकेट जगत में अभी तक अपनी जगह तलाश रही है। जिस समय बांग्‍लादेश को टेस्‍ट टीम का दर्जा दिया जा रहा था उस वक्‍त भी इस फैसले का काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। यह बात कही जा रही थी कि यह एक जल्‍दबाजी में लिया गया फैसला है। इस विरोध के बावजूद, आईसीसी ने बांग्‍लादेश को टेस्‍ट के एलीट क्‍लब में शामिल कर लिया।
मगर, पिछले आठ सालों में बांग्‍लादेश खुद को कभी भी एक टेस्‍ट टीम के रूप में स्‍थापित नहीं कर पाई। 53 टेस्‍ट मैच खेल चुकी बांग्‍लादेशी टीम अभी तक सिर्फ एक टेस्‍ट ही जीत पाई है, वह भी पतन के दौर से से गुजर रहे जिम्‍बाब्‍वे के खिलाफ। 47 मैचों में उसे हार का सामना करना पड़ा है। इस बीच रह-रहकर उसके टेस्‍ट दर्जे को बनाए रखने पर सवाल उठते रहे। मगर, बांग्‍लादेश में क्रिकेट के बाजार के चलते टेस्‍अ दर्जा वापस लेने का फैसला नहीं किया गया।
हालांकि वनडे में बांग्‍लादेश ने समय-समय पर बड़ी टीमों को हराकर उलटफेर किया है। चाहे 1996 के विश्‍व कप में पाकिस्‍तान पर जीत हो या‍ फिर 2007 विश्‍वकप में भारत को हराने का कारनामा, जिसकी वजह से भारत को पहले दौर में ही बाहर हो जाना। बांग्‍लादेश वर्ल्‍ड चैंपियन ऑस्‍ट्रेलिया को भी मात दे चुका है। लेकिन, बांग्‍लादेश ऐसे कारनामें कभी-कभार ही कर पाया। अपने प्रदर्शन की निरंतरता को बनाए नहीं रख सका। लिहाजा, ये सारी जीत महज तुक्‍का ही साबित होकर रह गई।
बांग्‍लादेश की क्रिकेट की गाड़ी अभी तक अपनी लय पकड़ भी नहीं पाई है कि उसे इतना बड़ा झटका स्‍पीड ब्रेकर की तरह सामने आ गया। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस झटके से टीम अपने मौजूदा हालात से दस साल तक पीछे चली जाएगी। उसे दोबारा वहीं से शुरू करना पड़ेगा, जहां से सालों पहले शुरूआत की थी। आखिर जो‍ खिलाड़ी आईसीएल में गए हैं उन्‍हें तैयार करने में बांग्‍लादेश क्रिकेट बोर्ड ने काफी मेहनत की होगी। भले ही उनका प्रदर्शन अच्‍छा न रहा हो, मगर क्रिकेट जगत वक्‍त के साथ-साथ उनके खेल के स्‍तर में बेहतरी की उम्‍मीद तो लगाए बैठा ही होगा। ऊपर से इन खिलाडियों को बागी करार देकर इन पर लगाए गए दस साल के प्रतिबंध ने इन खिलाडि़यों की वापसी की राह भी बंद कर दी है। बांग्‍लादेश के क्रिकेट पर आया यह संकट काफी गहरा है, जिससे निपटने में उसे काफी वक्‍त लग सकता है। इसके लिए न सिर्फ बांग्‍लादेश क्रिकेट बोर्ड को गंभीर प्रयास करने पड़ेंगे, बल्कि अन्‍य देशों के सहयोग की भी जरूरत होगी।

Tuesday, September 16, 2008

इस बार पूरी तरह से तैयार है आईसीएल

इंडियन क्रिकेट लीग और इंडियन प्रीमियर लीग के बीच प्रतिद्वंद्विता क्रिकेट में जगजाहिर है। एक दूसरे से आगे निकलने की इस होड़ में पिछले साल आईसीएल पीछे रह गया था, लेकिन इस बार की तैयारियां कुछ खास हैं। इसके दूसरे सीजन में आईसीएल के अधिकारी न केवल बुनियादी कमियों को दूर करने में लगे हैं, बल्कि नए खिलाडि़यों को लीग में शामिल कर दर्शकों को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते।
भारत मल्‍होत्रापहले आया आईसीएल- खिलाडि़यों के लिए बड़ा पैसा कमाने के पहले मौके के रूप में। भारत में टी-20 क्रिकेट की वास्‍तविक शुरुआत का श्रेय आईसीएल को ही है। एस्‍सेल ग्रुप द्वारा संचालित इस लीग में देश-विदेश के कई खिलाडी शामिल हुए। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद इसे वह सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्‍मीद थी। फिर आया आईपीएल- बीसीसीआई द्वारा संचालित इस लीग ने भी 20-20 फॉर्मेट को अपनाया। ताज्‍जुब की बात तो यह है कि आईपीएल को अपार सफलता मिली और आईसीएल गुमनामी के अंधेरे में खो गया। कपिल देव का यह बयान कि आईसीएल क्रिकेट में बेहतर रहा और आईपीएल मॉर्केटिंग में- दरअसल, यह बात कपिल के दर्द की ओर इशारा करता है, वो उस सफलता को हासिल नहीं कर पाए जिसकी उम्‍मीद उन्‍होंने की थी। सही मायनो में आईपीएल की सफलता ने आईसीएल के लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं। भारत ने टी-20 के फॉरमेट की शुरुआत आईसीएल ने की मगर बावजूद इसके वह लोगों को अपनी ओर खींचने में नाकामयाब रहा। वहीं दूसरी ओर आईपीएल ने सफलता के नए आयाम तय कर दिए। आईसीएल को पता है कि अब उसके लिए खुद को बचाए रखने के लिए काफी मेहनत करने की जरूरत है। आईसीएल अब अपने दूसरे सीजन के साथ आने के लिए तैयार है। पिछली बार इस टूर्नामेंट को इतनी सफलता न मिली हो, मगर इस बार उनकी पूरी कोशिश है इस तथाकथित बागी टूर्नामेंट को एक सफल आयोजन बनाया जा सके। आईसीएल को अभी तक किसी भी क्रिकेट बोर्ड की ओर से मान्‍यता नहीं मिली है और यही बात उसके आगे बढ़ने में सबसे बड़ी रुकावट बन रही है। सभी देशों के क्रिकेट बोर्ड इस बात को साफ तौर पर कह चुके हैं कि जो भी खिलाड़ी आईसीएल का हिस्‍सा बनेगा वह राष्‍ट्रीय टीम में नहीं चुना जाएगा, यानी उसका अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट करियर समाप्‍त हो जाएगा। पिछले सीजन में आईसीएल के पास एक भी अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर का स्‍टेडियम नहीं था और न ही प्रायोजन के स्‍तर पर ही कोई स्‍थापित नाम उनसे जुड़ने को तैयार हुआ था। इन सब बातों से निजात पाने के लिए ही आईसीएल इस बार किसी भी तरह की कोताही बरतने की गलती नहीं करना चाहता। कपिल एंड कंपनी जानते हैं कि अगर इस बार वे अपना स्‍तर और प्रदर्शन नहीं जुटा पाए तो उनके लिए दोबारा यहां से संभलना काफी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए इस दूसरे सीजन की तैयारी के लिए काफी समय पहले ही तैयारी शुरू कर दी गई। इस बार आईसीएल का आयोजन पिछली बार से बड़े स्‍तर पर करवाया जा रहा है। अच्‍छी सुविधाओं के नाम पर नए मैदानों का जुगाड़ किया जा रहा है तो नए खिलाडि़यों को साथ करने की भी हरसंभव कोशिश की जा रही है। साथ ही इस बार तो उन्‍हें कुछ प्रायोजक भी मिलने लगे हैं। इस बार आईसीएल को अहमदाबाद के एक स्‍टेडियम में खेलने का मौका मिलेगा, इसके साथ ही यहां पर ईडन गॉर्डन को लेकर भी आईसीएल अधिकारी कोशिश कर रहे हैं। आईसीएल के साथ खिलाडि़यों के जुड़ने और साथ छोड़ने का एक सिलसिला चलता रहा है। ब्रॉयन लारा इसके साथ जुड़े मगर खेलने में उनका मन यहां कभी खेलने में नहीं लगा। शेन वॉर्न और ग्‍लेन मैक्‍ग्रा की भी इसके साथ जुड़ने की खबरें आई थीं, मगर बाद में दोनों ही सितारे आईसीएल को ठेंगा दिखाकर आईपीएल में शामिल हो गए। मोहम्‍मद यूसुफ भी आईसीएल में शामिल होने को तैयार थे मगर बाद में वे आईपीएल में शामिल होने को ललचाते रहे। हांलांकि, उन्‍हें वहां भी जगह नहीं मिली। इस सबके बीच बांग्‍लादेश के 14 खिलाडियों के आईसीएल के साथ जुड़ने की बात सामने आई है। आईसीएल के लिए एक बड़ी खुशखबरी है कि टेस्‍ट खेलने वाले किसी देश के खिला‍ड़ी उसके साथ जुड़ रहे हैं।

Monday, September 8, 2008

ईरानी ट्रॉफी पर है सबकी निगाहें

ईरानी ट्रॉफी के मुकाबले से ही टेस्‍ट टीम चुने जाने की पूरी संभावना है। चैंपियंस ट्रॉफी न होने की सूरत में ईरानी ट्रॉफी पर सबकी निगाहें टिकी हैं।

ऑस्‍ट्रेलिया से टेस्‍ट सीरीज का आगाज 9 अक्‍टूबर से होगा। लेकिन, इससे पहले ही 24 सितंबर से वड़ोदरा मे शुरू हो रही ईरानी ट्रॉफी का सबको बेसब्री से इंतजार रहेगा। भारतीय क्रिकेट का हर स्‍टार यहां शिरकत करेगा। लेकिन, भारतीय क्रिकेट के चयनकर्ताओं से लेकर जानकारों और क्रिकेट को चाहने वालों सबकी निगाह इस बात पर होगी कि कौन कि पोंटिंग की वर्ल्‍ड चैंपियन टीम के खिलाफ टेस्‍ट टीम में जगह बना सकता है। इसलिये इस बार ईरानी ट्रॉफी अचानक सुर्खियों में है।

ऑस्‍ट्रेलिया से खिलाफ सीरीज शुरू होने से पहले भारतीय खिलाडियों के पास खुद को परखने का अकेला मौका है। हाल ही श्रीलंका के खिलाफ खेली गई टेस्‍ट सीरीज में भारत का गोल्‍डन मिडिल ऑर्डर रन बनाने में नाकामयाब रहा था। इस मैच के जरिए बल्‍लेबाजों के पास ऑस्‍ट्रेलियाई टेस्‍ट सीरीज से पहले खुद को टटोलने और अपनी खोई लय पाने का भी यह आखिरी अवसर कहा जा सकता है। ऑस्‍ट्रेलिया के लिए भारत हमेशा से ही एक मुश्किल टीम रही है। पिछली बार पोंटिंग की टीम भारत को 35 साल बाद सीरीज हरा पाने में सफल रही थी। इस बार भारत की पूरी कोशिश होगी कि वह बार सीरीज जरूर जीते वहीं दूसरी ओर ऑस्‍ट्रेलिया पिछली बार के प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश करेगा। ऐसे में चयनकर्ता ईरानी ट्रॉफी के जरिए एक ऐसी मजबूत टीम चुनना चाहेंगे जो ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ टीम को सीरीज में जीत दिला सकें।
ईरानी ट्रॉफी के मुकाबले से ही टेस्‍ट टीम चुने जाने की पूरी संभावना है। पूरी टीम पर नजर दौड़ाने के बाद टीम में ओपनर के तौर पर सहवाग के साथी के तौर पर चार दावेदार खड़े नजर आते हैं। गौतम गंभीर, वसीम जाफर और आकाश चोपड़ा के साथ ही पार्थिव पटेल भी अपनी दावेदारी पेश करते नजर आ रहे हैं। वहीं नम्‍बर 6 के‍ लिए कैफ का नाम सबसे आगे हैं। इसके आलावा रोहित शर्मा, बदबीनाथ और सुरेश रैना भी इस दौड़ में हैं। लेकिन अगर कहीं ये सितारे अच्‍छा प्रदर्शन नहीं कर पाए तो युवराज सिंह और पूर्व भारतीय कप्‍तान सौरव गांगुली भी इस टीम का हिस्‍सा बन सकते हैं।

चैंपियंस ट्रॉफी न होने की सूरत में भी इस ट्रॉफी पर निगाहें और भी ज्‍यादा गढ़ गई हैं। इससे पहले साल 2003 में मुंबई बनाम शेष भारत मुकाबले में ही इतने सितारे एक साथ नजर आए थे। चेन्‍नई में खेले गए इस मैच में शेष भारत की ओर से वीवीएस लक्ष्‍मण, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ जैसे सितारे थे वहीं सचिन तेंदुलकर मुंबई की ओर से खेलते नजर आए थे। इस मुकाबले के जरिए टीम को श्रीलंका की हार से तो उबरना ही है साथ ही खुद को पोंटिंग की सेना के लिए पूरी मजबूती से तैयार भी करना है।ईरानी ट्रॉफी में पहले भी भारतीय क्रिकेट टीम को सितारे देती चली आई है। 1976 में दिलीप वेंगसरकर ने मुंबई की ओर से खेलते हुए ईरानी ट्रॉफी में 90 रनों की पारी खेली थी जिसकी बदौलत वे भारतीय टेस्‍ट टीम में जगह बना पाए थे। मौजूदा भारतीय टेस्‍ट टीम के कप्‍तान अनिल कुंबले भी ईरानी ट्रॉफी के जरिए ही भारतीय टीम में वापसी कर पाए थे। 1992 में दिल्‍ली के खिलाफ खेलते हुए कुंबले ने मैच में कुल 13 विकेट लिए थे और इसके बाद कुंबले टीम का एक अहम हिस्‍सा बन पाए।

Thursday, September 4, 2008

विदेशी कोचों ने निभाई है सकारात्‍मक भूमिका

विदेशी कोच अब एशियाई टीमों का एक अहम हिस्‍सा सा बन गए है। इस समय सभी एशियाई देशों को विदेशी कोच ही कोचिंग दे राहे हैं। उनके आने के सा‍थ विवाद भले ही जुड़े हों, मगर टीमों को उनके आने से फायदा तो हुआ ही है।

साल 2003 का विश्‍व कप। भारतीय टीम 20 साल बाद विश्‍व कप के फाइनल में पहुंची थी। ऐसा नहीं था कि टीम संयोगवश ही फाइनल में पहुंची हो। टीम को इस मौके के लिए तैयार करने की तैयारी काफी समय से चल रही थी। यह वह दौर था जब भारतीय टीम सचिन के साये से निकलकर सही मायनों टीम इंडिया बन रही थी। टीम इ‍ंडिया जिसमें जीत का जज्‍बा था, टीम इंडिया जो मैदान पर अपने आखिरी दम तक लड़ने के लिए तैयार थी। उस समय मैन इन ब्‍लू को बनाने की जिम्‍मेदारी दो इंसानों के हाथ में थी। सौरव गांगुली और टीम इंडिया के पहले विदेशी कोच जॉन राइट। न्‍यूजीलैंड के इस बल्‍लेबाज ने सौरव गांगुली के साथ मिलकर भारतीय टीम मे आखिरी दम तक जीत के लिए जी-जान लगाने का जज्‍बा भरा वो उससे पहले भारतीय टीम में कभी नहीं देखा गया। विश्‍व कप के शुरुआती दौर में टीम के खराब प्रदर्शन के कारण काफी आलोचनाएं हुई थी। मगर, यह जीत की भूख का ही न‍तीजा था कि टीम ने उसके बाद लगातार जीत दर्ज करते हुए फाइनल तक सफर तय किया।
उस दौर में भारत में नए खिलाड़ी अपनी जगह बनाने के साथ साथ जिम्‍मेदारी भी समझ रहे थे। इसके लिए कोच की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर खिलाडियों को तराशना और उनमें विश्‍वास भरना कोच के काम का एक अहम हिस्‍सा है। एशियाई महाद्वीप में विदेशी कोचों की बात को थोड़ा और पीछे ले जाया जाए तो साल 1996 में श्रीलंका सभी संभावनाओं को झुठलाते हुए विश्‍व कप चैंपियन बनी थी। टूर्नामेंट से पहले श्रीलंका ने अंचभे करने तो शुरु किया था मगर उसके विश्‍व विजेता बनने पर कोई भी पैसा लगाने को तैयार नहीं था। मगर सनथ जयसूर्या से पारी की शुरूआत कराने का फैसला वनडे की दिशा और दशा बदलने वाला साबित हुआ। जयसूर्या ने शुरूआती 15 ओवर में तेजी से रन बनाने का जो सिलसिला शुरु किया वो आने वाले दिनों में वनडे की पहचान बन गया। इसके बाद साल 2007 में श्रीलंका विश्‍व कप के फाइनल तक पहुंची थी, और इस बार भी टीम की कोचिंग की जिम्‍मेदारी पूर्व ऑस्‍ट्रेलियाई खिलाड़ी टॉम मूडी के हाथ में थी।

इन दोनो घटनाओं में एक बात समान थी वह थी विदेशी कोच का होना। अर्जुन राणातुंगा ने जब लाहौर के गद्दाफी स्‍टेडियम में विश्‍व कप थामा तो उस समय टीम के कोच के रूप में डेव व्‍हॉटमोर मौजूद थे। व्‍हॉटमोर ने श्रीलंकाई टीम के साथ जो तजुर्बे किए उसने न सिर्फ श्रीलंका को विश्‍व विजेता ही बनाया बल्कि एक बेहतर टीम बनने में भी मदद की।

इस लिहाज से अगर देखा जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप की सभी टीमों की कमान अब पिछले काफी समय से विदेशी कोचों के हाथ में है। इन कोचों की मौजूदगी में एशियाई टीमों को काफी फायदा भी हुआ है। भारत की कमान दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ी गैरी कर्स्‍टन के हाथ में है तो पाकिस्‍तान के कोच का पद जैफ लॉसन के पास है। श्रीलंका और बांग्‍लादेश की नजर में भी विदेशी कोच ही टीम को बेहतर रूप देने में ज्‍यादा कारगर स‍ाबित हो सकते हैं। अगर व्‍हॉटमोर को देखा जाए तो उन्‍होने न सिर्फ श्रीलंकाई टीम के खेल के स्‍तर को ऊंचा उठाया वहीं उसके बाद बांग्‍लादेश टीम को भी पहले से बेहतर टीम बनाया। आजकल व्‍हॉटमोर भारत में रहकर एनसीए के साथ काम कर रहे हैं और उन्‍हीं की श‍ार्गिदगी में जूनियर टीम इंडिया विश्‍व कप विजेता बनकर आई।

ग्रेग चैपल का भारतीय टीम के साथ गुजारा वक्‍त भले ही काफी विवादों के बीच घिरा रहा हो, मगर टीम इंडिया को कई नए सितारे दिए। जिस टीम ने टी-20 विश्‍व कप जीता उसमें ज्‍यादातर खिलाड़ी ग्रेग चैपल के समय में ही भारतीय टीम के साथ जुड़े। चैपल ने आते ही भविष्‍य की टीम बनाने पर नजर रखी और नए चेहरों को टीम में मौका देना शुरू किया। सुरेश रैना उनमें से एक नाम है जो चैपल के वक्‍त में टीम इंडिया का हिस्‍सा बने। दरअसल, चैपल शुरू से नए खिल‍ाडियों और नए‍ सितारों को टीम में मौका देने के पक्षधर रहे। उन्‍हीं के कोच रहते भारत ने रनो का पीछा करते हुए लगातार 17 वनडे जीतने का रिकॉर्ड बनाया। ग्रेग चैपल भारतीय टीम के साथ भले ही न हों मगर भारत के साथ अभी भी जुड़े हुए हैं। चैपल फिलहाल राजस्‍थान क्रिकेट एसोसिएशन के साथ जुड़े हुए हैं।

पहला आईपीएल टूर्नामेंट जीतने वाली टीम के खिलाडियों को ढूढने का जिम्‍मा भी चैपल ने ही तो संभाला था। वैसे, आईपीएल की भी अगर बात की जाए तो वहां भाग ले रही सभी टीमों में विदेशी खिलाड़ी या तो कोच के तौर पर काम कर रहे थे या‍ फिर वे बतौर सलाहकार टीमों के साथ जुडें थे। फिर चाहे वो ऊपरी दो पायदानों पर रही राजस्‍थान रॉयल्‍स और चेन्‍नई सुपरकिंग्‍स रही हो या फिर सबसे नीचे रही बंगलौर रॉयल चैंलेजर्स और डेक्‍कन चार्जर्स। हर जगह विदेशी कोचों ही नजर आए। यह बात साफ करती है कि क्रिकेट के इस नए प्रारूप जिसकी शुरुआत भारत में भारतीयों द्वारा की गई में भी विदेशी कोचों का ही बोलबाला रहा है।

यह विदेशी कोच खेल में बेहतर प्रोफेशनल रवैये के साथ आते हैं जहां खिलाड़ी के नाम की बजाए उनके प्रदर्शन को ज्‍यादा तरजीह दी जाती है। यहां नाम से ज्‍यादा काम की कीमत समझी जाती है। वे नई सोच के साथ आते हैं और उस सोच को पूरा करने के लिए उनके पास पूरी रणनीति भी होती है। ज्‍यादातर मामलों में टीम को उससे फायदा ही हुआ है।

मौके को भुनाने में माहिर हैं माही

करीब चार साल पहले भारतीय टीम में जगह बनाने वाले महेंद्र सिंह धोनी आज भारतीय किक्रेट के सबसे चमकते सितारे हैं। इतने कम समय में उन्‍होंने क्रिकेट के बारे में जो समझ विकसित की है, वह काबिले-दाद है। यही वजह है कि कप्‍तान रूप में ट्वेंटी-20 और वनडे में उनके प्रदर्शन को देखते हुए लोग उन्‍हें टेस्‍ट टीम की कप्‍तानी सौंपने की बात कह रहे हैं। इस कड़ी में सबसे नया नाम टीम इंडिया के कोच गैरी कर्स्‍टन का है।

भारत मल्‍होत्राभारत-श्रीलंका वनडे सीरीज का तीसरा मैच। 91 रन पर भारत के चार खिलाड़ी आउट हो चुके थे। ऐसे हालात में धोनी नम्‍बर 6 पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। पहले सुरेश रैना के साथ 54 रनों की साझेदारी और उसके बाद रो‍हित शर्मा के साथ 67 रनों की साझेदारी। इन दो अहम साझेदारियों की बदौलत भारत का स्‍कोर 200 के पार पहुंचता है। 23वें ओवर में बल्‍लेबाजी करने आए धोनी 49 वें ओवर तक बल्‍लेबाजी कर 76 रन बनाते हैं। भारत यह मैच जीत कर सीरीज में 2-1 की बढ़त हासिल करता है।इससे अगले मैच में रैना शानदार बल्‍लेबाजी कर रहे थे, विराट कोहली के आउट होने के बाद (81/3) धोनी नम्‍बर इस बार पांच पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। वजह, रैना के साथ मिलकर रन गति को बनाए रखना। धोनी का यह तीर पर निशाने पर लगा। उनके और रैना के बीच 143 रनों की साझेदारी की बदौलत पहली बार (और अंतिम बार भी) स्‍कोर 250 के पार पहुंचता है। दोनों टीमों की ओर से यह सीरीज में एक पारी का उच्‍चतम स्‍कोर था। भारत यह मैच जीत कर सीरीज में 3-1 में निर्णायक बढ़त हासिल कर लेता है। ये दोनो उदाहरण यह दिखाते हैं धोनी परिस्थितियों को पढ़कर उसके हिसाब से खुद को ढालने में कितने माहिर हैं। वह जानते है कि कब, कौन सा फैसला टीम के लिए फायदेमंद होगा। उनकी इसी खूबी ने भारतीय कोच गैरी कर्स्‍टन को भी उनका दीवाना बना दिया है। आखिर, कोच को भी कहना ही पड़ा कि धोनी अब टेस्‍ट कप्‍तानी संभालने के लिए तैयार हैं।

वैसे, धोनी के टेस्‍ट कप्‍तान बनने की सुगबुआहट तो काफी समय पहले ही शुरू हो गई थी, मगर अब जब कर्स्‍टन की ओर से यह बयान आया है तो इस बात को और बल मिला है कि अब धोनी के टेस्‍ट कप्‍तान बनने में ज्‍यादा देर नहीं है। यह बात सही है कि अब अनिल कुंबले ज्‍यादा वक्‍त तक क्रिकेट नहीं खेल पाएंगें। आखिर वे अपने करियर के अंतिम पड़ाव पर हैं। इन हालातों में धोनी ही सबसे ताकतवर विकल्‍प के तौर पर सामने आते हैं। धोनी के अलावा वीरेन्‍द्र सहवाग भी कुंबले का विकल्‍प बन सकते हैं, मगर इस दौड़ में वे काफी पिछड़ते नजर आ रहे हैं। रही बात युवराज की, तो उनके लिए टीम में अपनी जगह बचाना ही काफी मुश्किल नजर आ रहा है। ऐसे में कप्‍तानी की बात तो काफी दूर की कौड़ी नजर आती है। साल 2004 में भारतीय टीम में कदम रखने वाले महेंद्र सिंह धोनी ने बहुत जल्‍दी कामयाबी की उचाईयां छू ली हैं। साल 2007 में इंग्‍लैंड दौरे से आने के बाद जब धोनी को ट्वेंटी-20 और वनडे टीम की कमान सौंपी गई, तब टीम सही मायनों में काफी परेशानियों से जूझ रही थी। उस संकट की घड़ी से टीम को निकालकर ट्वेंटी-20 विश्‍व कप विजेता बनाना और उसके बाद ऑस्‍ट्रेलिया में कॉमनवेल्‍थ बैंक सीरीज में जीत हासिल करना धोनी के करियर की सबसे बड़ी कामयाबियां कही जा सकती हैं। हाल ही में श्रीलंका को उसी के घर में वनडे में मात देकर धोनी ने एक और बड़ी कामयाबी हासिल की है। कोच कर्स्‍टन भी इस राय से इत्‍तेफाक रखते हैं कि धोनी सर्वश्रेष्‍ठ वनडे बल्‍लेबाजों में शुमार है और अपने प्रदर्शन के दम पर खेल का रुख बदलने का माद्दा रखते हैं। टीम वनडे मुकाबलों में उनकी कप्‍तानी में जीत भी हासिल कर रही है। धोनी ने कप्‍तान बनने के बाद अपनी बल्‍लेबाजी करने के तरीके में भी बदलाव किए हैं।

धोनी ने अपने करियर की शुरुआत एक आक्रामक बल्‍लेबाज के तौर पर की। अपने पांचवें ही मैच में धोनी ने पाकिस्‍तान के खिलाफ शानदार 148 रनों की नाबाद पारी खेली। उसके बाद श्रीलंका के खिलाफ भी जयपुर में धोनी ने धुंआधार 183 रन रन बनाए। मगर, धोनी अब सिर्फ धूम-धूम में ही विश्‍वास नहीं रखते। परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालकर मैच को विरोधी के पंजे से खींचकर लाना धोनी की आदत सी हो गई है।

विरोधी टीमें जानती हैं कि धोनी के विकेट की अहमियत क्‍या है। धोनी खुद भी अपने विकेट की कीमत पहले से बेहतर समझते हैं। अगर विकेट पर टिककर बल्‍लेबाजी करने की जरूरत है तो धोनी उसी के हिसाब से बल्‍लेबाजी कर पारी को आगे बढ़ाते हैं। साथ ही, बीच-बीच में कमजोर गेंद पर प्रहार कर गेंदबाजों को हावी होने का मौका भी नहीं देते। गियर बदलने में उन्‍हें देर नहीं लगती। असल में वे जानते हैं कि कैसे धीरे-धीरे अपने लक्ष्‍य की बढ़ते हुए रफ्तार में बदलाव करना है।

अगर इस बात को आंकड़ों की नजर से देखा जाए तो, 120 वनडे खेल चुके धोनी का करियर औसत 47।81 है, वहीं 36 मैचों में बतौर कप्‍तान उन्‍होंने 57.83 की औसत से रन बनाए हैं। इससे पता चलता है कि वे कप्‍तानी की जिम्‍मेदारी से टूटने वाले खिलाडियों में से नहीं है, बल्कि यह जिम्‍मेदारी उन्‍हें और मजबूत बनाती है। कप्‍तान, विकेटकीपर और बल्‍लेबाज की तिहरी भूमिका निभाने वाले धोनी सभी जिम्‍मेदारियों को अच्‍छी तरह से निभाने में सक्षम रहें हैं। नम्‍बर 5 या 6 पर कठिन परिस्थितियों में बल्‍लेबाजी कर धोनी कई बार टीम के लिए संकटमोचक की भूमिका निभा चुके हैं। जिन 36 मैचों में धोनी ने कप्‍तानी की है उनमें से 19 बार टीम को जीत मिली है और 14 में हार। जीते हुए मुकाबलों में धोनी का औसत 82.44 का है, वहीं जिन मैचों में टीम हारी है उनमें उनका औसत गिरकर 32.07 रह जाता है। यह बात साबित करती है कि धोनी का प्रदर्शन टीम की जीत में अहम रोल अदा करता है।

कप्‍तान के तौर पर धोनी में जोखिम लेने की हिम्‍मत भी नजर आती है। वे लकीर के फकीर बनने के बजाए जीत हासिल करने के लिए नए तरीके आजमाने से पीछे नहीं हटते। चौथे मैच में ही सनत जयसूर्या भारतीय गेंदबाजों के लिए खतरा बनते जा रहे थे, ऐसे मौके पर धोनी गेंद हरभजन सिंह को थमाते हैं। हरभजन भी अपने कप्‍तान के फैसले को सही साबित करते हुए जयसूर्या को आउट कर देते हैं। कप्‍तानी की समझ के बारे में कहा जाए तो धोनी प्रयोग करने से नहीं डरते और अपने फैसले के परिणाम भुगतने के लिए भी तैयार रहते हैं। वे हार और जीत दोनो के लिए किसी एक को नहीं, बल्कि उसे टीम की साझा जिम्‍मेदारी मानते हैं। यह एक कप्‍तान की सबसे बड़ी खूबी है जो व्‍यक्गित
आरोपों से बचते हुए पूरी टीम को साथ लेकर चलने की कला जानता हो।
धोनी के पूर्व के कप्‍तानों के प्रदर्शन पर देखा जाए तो राहुल द्रविड़ ने 79 वनडे मैचों में भारत की कप्‍तानी की। बतौर कप्‍तान उन्‍होंने 42 से ज्‍यादा की औसत से रन बनाए, जबकि उनका करियर औसत 39.49 का ही है। सचिन तेंदुलकर के लिए कप्‍तानी एक बुरे दौर की तरह रही। अपने 73 मैचों के कप्‍तानी के सफर में सचिन का औसत 37.75 ही रहा, जबकि उनका करियर औसत 44 के ज्‍यादा है। सचिन की बल्‍लेबाजी पर कप्‍तानी का दबाव साफ तौर पर देखा जा सकता था। धोनी जानते हैं कि उन्‍हें टीम के युवा खिलाडियों से कैसे काम कराना है। युवाओं को तरजीह देने के कारण कई बार उनकी तुलना सौरव गांगुली से भी की जाती है जिन्‍होने अपनी कप्‍तानी में युवाओं की टीम बनाने का काम किया था।