Friday, November 21, 2008

पीटरसन को तलाशनी होंगी जीत की नई राहें



भारत और इंग्‍लैंड की इस सीरीज को दो टीमों से ज्‍यादा दो कप्‍तानों की जंग कहा गया। दो युवा जाबांज कप्‍तान। दो ऐसे कप्‍तान जिनके लिए जीत ही एकमात्र लक्ष्‍य। दो ऐसे कप्‍तान जो विरोधी को दिमागी लड़ाई में हराने में यकीन रखते हों। लेकिन, महेंद्र सिंह धोनी और केविन पीटरसन के बीच इस दिमागी जंग में पीटरसन कहीं पिछड़ते नजर आ रहे हैं।

भारत मल्‍होत्रा

राजकोट, इंदौर और अब कानपुर। इंग्‍लैंड के लिए मैदान बदलते रहे, लेकिन किस्‍मत नहीं। सात मैचों की वनडे सीरीज में अभी तक हुए मुकाबलों में केविन पीटरसन की टीम हर मोर्चे पर धोनी की टीम के मुकाबले उन्‍नीस ही नजर आ रही है।

केविन पीटरसन का बतौर कप्‍तान विदेशी जमीन पर यह पहला दौरा है। लेकिन, अभी तक इस दौरे पर उनके लिए कुछ भी सही होता नजर नहीं आ रहा। मुंबई एकादश के‍ खिलाफ अभ्‍यास मैच की हार से शुरु हुआ सिलसिला अभी तक जारी है। सात मैचों की सीरीज में पीटरसन की टीम अब एक ऐसे मुकाम पर खड़ी है जहां से उसकी वापसी की राहें अब लगभग नामुनकिन सी हो गयी हैं। सीरीज में 3-0 से पिछड़ने के बाद इंग्‍लैंड अब बचाव की मुद्रा में आ गई है।

भारत दौरे पर आने से पहले इंग्‍लैंड के कोच पीटर मूर्स और पीटरसन की ओर से लगातार इस तरह की बयानबाजी हो रही थी कि भारत दौरे पर वे जीतने आ रहे हैं। लेकिन भारत की जमीं पर उतरने के एक पखवाड़ा बीतने के बाद वो बातें हवाई महल नजर आने लगे हैं।

इस सीरीज को केविन पीटरसन और महेंद्र सिंह धोनी की दिमागी जंग कहा गया। ऐसा कहा जाने लगा कि इन दोनो में जो यह जंग जीतेगा अंत में सीरीज का ताज भी उसी के सिर होगा। पीटरसन काफी आक्रामक कप्‍तान माने जाते हैं। एक ऐसा कप्‍तान जो बने बनाए रास्‍तों पर चलने में विश्‍वास नहीं रखता वो अपने रास्‍ते खुद तय करता है। मंजिल पर पहुंचने का हर मुनकिन रास्‍ता अपनाते के लिए तैयार दिखायी देते थे पीटरसन- लेकिन भारत दौरे पर उनका सामना भारत के महेंद्र सिंह धोनी से हुआ। धोनी की चालों के सामने पीटरसन के सभी मोहरे कमजोर साबित हो रहे हैं।

उनके बल्‍लेबाज रन बनाने में कामयाब नहीं हो रहे और गेंदबाज विकेटों को तरसते नजर आ रहे हैं। अंग्रेजों के लिए यह बड़ी समस्‍या तो है ही लेकिन एक आदमी जिस पर सबसे ज्‍यादा दबाव हैं वो है केविन पीटरसन। बल्‍लेबाजी क्रम में बदलाव किया गया टीम का कॉम्बिनेशन बदला गया। लेकिन नतीजा वही सिफर। दक्षिण अफ्रीकी मूल के इस इंग्लिश कप्‍तान के सामने इस समय काफी मुश्किलें हैं।

वैसे पीटरसन का क्रिकेट करियर भी किसी रोमांच से कम नहीं है। पीटरसन ने अपने क्रिकेट करियर की वहीं से की। लेकिन, जब राष्‍ट्रीय टीम के लिए खेलने की बात सामने आयी तो दक्षिण अफ्रीका में मौजूद कोटा सिस्‍टम उनके आड़े आ गया। इस वजह से उन्‍हें दक्षिण अफ्रीका के लिए खेलने का मौका नहीं मिल सका। पीटरसन ने हार नहीं मानी। और वे पहुंच गए अपनी मां के देश इंग्‍लैंड। उनके काउंटी के दिनों से ही उन्‍हें टीम मे लिए जाने की मांग उठने लगी। चार साल तक यहां कांउटी क्रिकेट में शिरकत करने के बाद उन्‍होने खुद को इंग्‍लैंड की टीम में खेलने की शर्त को पूरा किया। उसके बाद अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट के मंच पर उन्‍होने खुद को एक धमाके के साथ पेश किया।

अगस्‍त में जब माइकल वॉन के कप्‍तानी छोड़ने के बाद इंग्‍लैंड की बागडोर केविन पीटरसन के हाथों में आई। बतौर कप्‍तान अपनी पहली वनडे सीरीज में उन्‍होने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 5 मैचों की सीरीज में 4-0 से जीत हासिल की। इस जीत के पीछे पीटरसन के उस गुस्‍से को भी वजह माना गया जो उनके अंदर कहीं छिपा हुआ था। शायद वो खीझ भी थी जिसकी वजह से उन्‍हें दक्षिण अफ्रीका के लिए खेलने का मौका नहीं मिला। पीटरसन की कप्‍तानी में टीम इंग्‍लैंड के प्रदर्शन में जबरदस्‍त उछाल देखा गया। क्रिकेट के जानकार और पुराने इंग्‍लैंड खिलाडि़यों को पीटरसन के रूप में इंग्‍लैंड क्रिकेट का नया तारणहार नजर आने लगा। हालांकि उनके चाहने वालों के बीच एक जमात ऐसी भी थी जो पीटरसन को कप्‍तान बनाए जाने के खिलाफ था। और अगर पीटरसन भारत से बुरी तरह से हारकर जाते हैं जो कहीं न कहीं उन आवाजों को फिर से दम मिलेगा।

उनकी कप्‍तानी का असल इम्तिहान भारत के खिलाफ माना गया। और, यहां पर उनके दांव कामयाब होते नहीं दिख रहे। इस सब के बीच पीटरसन के चरित्र को देखते हुए एक बात तो कही जा सकती है कि वो इतनी आसानी से हार नहीं मानेंगे। बेशक सीरीज में उनके लिए अब जीत की उम्‍मीद लगभग न के बराबर हो लेकिन केपी अपनी ओर से पूरा जोर लगाएंगे कि सीरीज में रोमांच बना रहे।

Wednesday, November 19, 2008

टीम इंडिया से पहले युवराज से पार पाना होगा इंग्‍लैंड की टीम को

दो मैचों में 253 का रन औसत। दो शतक। युवराज सिंह का यह प्रदर्शन इंग्‍लैंड कप्‍तान केविन पीटरसन के लिए बड़ी चिंता का विषय है। कानपुर के ग्रीन पॉर्क में केपी के सामने सबसे बड़ी समस्‍या टीम इंडिया के युवराज से पार पाने की होगी।

भारत मल्‍होत्रा

‘मैं युवराज को होटल के बाहर ले जाउंगा और कुछ ऐसा करूंगा ताकि वो कानपुर वनडे में न खेल पाएं’- 17 नवम्‍बर को खेले गए दूसरे वनडे के बाद इंग्‍लैंड के कप्‍तान केविन पीटरसन ने भले ही यह बात मजाक में कही हो, लेकिन यह बात युवराज के प्रति इंग्‍लैंड टीम के खौफ को दिखाने के लिए काफी है। युवराज सिंह इस सीरीज से पहले फॉर्म में नहीं थे, लेकिन इंग्‍लैंड सीरीज के अब तक दोनों मैचों में युवराज ने शानदार खेल दिखाया है। पहले मैच में सिर्फ 78 गेंद में 138 रन की ताबड़तोड़ पारी खेल युवराज ने अंग्रेज गेंदबाजों के धुर्रे बिखेर दिए। दूसरे मैच में 29 के स्‍कोर पर तीन भारतीय बल्‍लेबाजों को पैवेलियन भेजने के बाद अंग्रेज टीम इंडिया को झटका देने की उम्‍मीद पालने लगे थे, लेकिन इस बार भी उनके अरमानो पर पानी फेरने का काम किया पंजाब के युवराज सिंह ने। युवराज ने एक बार फिर सैकड़ा जड़ा और भारत का स्‍कोर 290 के पार पहुंचाया। इतना होता तो भी खैर थी, लेकिन बल्‍ले के बाद युवी ने अपनी गेंदों से भी कहर बरपा दिया। उन्‍होंने चार इंग्लिश बल्‍लेबाजों को पैवेलियन की राह भेजा। तो, अब राजकोट और इंदौर के इन दो मुकाबलों के बाद इंग्‍लैंड टीम के लिए कानपुर में टीम इंडिया का युवराज सबसे बड़ा खतरा है। धोनी कहते हैं कि युवराज जब फॉर्म में होते हैं तो वे सचिन और सहवाग से ज्‍यादा आक्रामक होते हैं और दूसरी ओर इंग्‍लैंड टीम के खिलाड़ी ग्रीम स्‍वॉन खुद को बदकिस्‍मत मानते हैं क्‍यों‍कि युवराज ने उनकी टीम के खिलाफ अपनी खोयी हुई फॉर्म पाई। कानपुर मुकाबले में अंग्रेजों के सामने सबसे बड़ी चुनौती आग उगलते युवराज के बल्‍ले को शांत करने की होगी। अभी तक खेले गए दोनो मुकाबलों में केविन पीटरसन की युवराज को रोकने की हर कोशिश नाकाम साबित हुई है। उनका कोई भी गेंदबाज युवराज पर किसी भी प्रकार का दबाव बना पाने में असफल रहा है। केपी की तेज गेंदबाजों की चौकड़ी स्‍टीव हॉर्मिसन, जेम्‍स एंडरसन और स्‍टुअर्ट ब्रॉड और एंड्रयू फ्लिंटॉफ भी युवराज को बांध पाने में असफल रही। युवराज अपने मन माफिक शॉट खेलते रहे और इंग्‍लैंड टीम उनके सामने लाचार नजर आई। उन्‍हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस खब्‍बू बल्‍लेबाज को कैसे रोका जाए। युवराज भी इस अंदाज में खेलते नजर आए मानो कि पिछले काफी अर्से से चले आ रहे रनों के सूखे को अंग्रेजों के खिलाफ ही पूरा करेंगे। इंग्‍लैंड टीम के थिंक टैंक में अब जिस भारतीय खिलाड़ी को लेकर सबसे ज्‍यादा चर्चा हो रही होगी, वो बेशक युवराज सिंह ही होंगे। कोच पीटर मूर्स और कप्‍तान केविन पीटरसन इसी बात पर विचार कर रहे होंगे कि आख्रिर किस तरह से युवराज को रन बनाने से रोका जाए। आखिर टीम इंडिया का यह जाबांज उनके रास्‍ते का सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। युवराज को रोकने के लिए मेहमान टीम तमाम तरह की नीतियों पर विचार कर रही होंगी। युवराज को रोकने का सबसे आसान तरीका जो जगजाहिर है- स्पिन गेंदबाजों के खिलाफ उनका कमजोर प्रदर्शन। लेकिन, यहां पर अंग्रेजों के पास कुछ खास औजार नहीं है। इंग्‍लैंड की ओर से समित पटेल को अभी तक दो मैचों में बतौर स्पिनर खिलाया गया, लेकिन किसी भी मैच में उन्‍होने अपने कोटा के पूरे 10 ओवर नहीं फेंके। ऐसे में टीम में ग्रीम स्‍वॉन को शामिल किया जा रहा है। उम्‍मीद यही कि एक विशेषज्ञ ऑफ स्पिनर होने के नाते स्‍वॉन कुछ खास कर पाएंगे। बात तो यह भी चली कि मोंटी पनेसर को टीम का साथ देने के लिए इंग्‍लैंड से बुलाया जाए।
युवराज पर दबाव बनाने की नीति अपनाकर केपी एंड कंपनी उन्‍हें सस्‍ते में आउट करने की कोशिश कर सकती है। वो चाहेंगे कि युवराज को पारी की शुरुआत में आसानी से रन न बनाने दिए जाएं। उन्‍हें खुलकर खेलने से रोककर उनके नैचुरल फ्लो को रोकना इंग्‍लैंड की रणनीति का हिस्‍सा हो सकता है।

Wednesday, November 12, 2008

खुद से जूझते नजर आ रहे हैं द्रविड़

दीवार में दरार, ढह गयी दीवार। यह सिर्फ अखबारों और खबरों की सुर्खियां भर ही नहीं हैं। यह कहानी है भारतीय बल्‍लेबाजी क्रम की सबसे मजबूत कड़ी की। बानगी एक ऐसे बल्‍लेबाज की जिसकी
बल्‍लेबाजी की चमक पिछले 12 साल से क्रिकेट जगत में फैली हुई है।

भारत मल्‍होत्रा

राहुल द्रविड़ ने लगभग 12 साल पहले अपने कॅरियर का आगाज किया। तभी से यह नाम भारतीय क्रिकेट में भरोसे का पर्याय बने रहा। एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही नि‍श्चितंता का भाव आ जाता। नाम जो अपने आप में संपूर्णता का ही दूसरा रूप लगता। टी-20 के दौर में टेस्‍ट क्रिकेट की सादगी और कलात्‍मकता को जीते राहुल द्रविड़।

उनका डिफेंस, जिसकी काट खोज पाने में दुनिया भर के गेंदबाज पसीना बहाते देखे गए। संयम और सहनशीलता की मिसाल बनते गए राहुल द्रविड़। गेंदबाज की हर चाल का जवाब अपने धैर्य से देते रहे राहुल द्रविड़। लेकिन, अब वो राहुल द्रविड़ कहीं खो सा गया लगता है। पिछले कुछ अर्से से राहुल अपने रंग में नजर नहीं आ रहे। वो भरोसा, वो नि‍श्चिंतता अब नजर नहीं आती।

जब वो नागपुर में बल्‍लेबाजी करने उतरे तो, एक उम्‍मीद जागी। शायद यहां द्रविड़ की रंगत लौटेगी। नागपुर से राहुल का खास नाता है। यहां उनका ससुराल है। जाहिर सी बात है यहां के लोगों को उनसे कुछ खास प्रदर्शन की उम्‍मीद रही होगी। लेकिन, पहली पारी में जेसन क्रेजा की एक गेंद को द्रविड़ काबू नहीं कर पाए और फॉरवर्ड शॉट लेग खड़े साइमन कैटिच को कैच थमा बैठै। द्रविड़ ने शॉट खेलने में गलती की लेकिन, कैटिच ने उनका कैच थामने में गलती नहीं की। पैवेलियन की ओर लौटते द्रविड़ के साथ लाखों उम्‍मीदें भी लौट रही थी। यहां सिर्फ भारत का विकेट ही नहीं गिरा था बल्कि साथ ही उस भरोसे को भी ठेस पहुंची थी जो राहुल को मैदान पर देखते ही जाग उठता।

दूसरी पारी में राहुल फिर बल्‍लेबाजी करने आए। यूं लगा कि इस बार तो रन जरूर बनाएंगे। सीधा बल्‍ला और गेंद को आंख के नीचे खेलते नजर आएंगें द्रविड। लेकिन, इस बार फिर वो नाकाम रहे। शेन वॉटसन की एक गेंद जब उनके बल्‍ले का किनारा लेती हुए विकेटकीपर ब्रेड हैडिन के दस्‍तानों में गयी राहुल ने सिर्फ तीन रन बनाए थे। एक बार फिर श्रीमान भरोसेमंद भरोसों पर पूरा नही उतर पाए। वैसे अगर भारतीय बल्‍लेबाजी क्रम के फैब फोर की बात करें इस ऑस्‍ट्रेलियाई सीरीज में सभी ने अपने आप को साबित किया है। सिवाय द्रविड़ के। हालांकि श्रीलंका में यही द्रविड वीवीएस लक्ष्‍मण के अलावा एकमात्र ऐसे बल्‍लेबाज थे जिन्‍होने रन बनाने में कामयाबी हासिल की थी। लेकिन, कंगारुओं के खिलाफ अहम सीरीज में नहीं चला राहुल का बल्‍ला। वो लगातार रन बनाने के लिए जूझते नजर आए। गेंद को मानो उनसे कोई बैर हो गया कि तमाम जद्दोजेहद के बाद भी वो उन्‍हें छकाने से बाज नहीं आयी।

राहुल के साथ यह खराब फॉर्म का सिलसिला अब से नहीं पिछले काफी लंबे अर्से से चला आ रहा है। अब उनके समर्थक माने जाने वालों की ओर से भी विरोघी स्‍वर सुनाई पड रहे हैं। यह आवाजें राहुल के पिछले प्रदर्शनों को देखते हुए सही लगती हैं। गुजरे दो सालों में द्रविड़ ने 23 टेस्‍ट मैच खेले। इन मैचों की 43 पारियों में उनके बल्‍ले से सिर्फ 1065 रन निकले। औसत रहा 35 से भी कम। और तो और वे केवल दो बार सौ और सात बार पचास का आंकड़ा पार पाए। बीते दो सालों और उनके पूरे कॅरियर को अगर तराजू के दो पलड़ों में रखें तो फर्क साफ नजर आता है।

साल 2006 तक द्रविड़ ने खेले थे 106 टेस्‍ट मैच, उनका औसत रहा करीब 57 रन बनाए 9098। इसमें शामिल थे 23 शतक और 46 अर्द्धशतक। यह वह दौर था तब टेस्‍ट मैच में राहुल का बल्‍लेबाजी औसत मास्‍टर ब्‍लास्‍टर सचिन से ज्‍यादा था। लेकिन, आज रन औसत के मामले में सचिन उनसे दो कदम आगे नजर आते हैं। अगर हाल ही में खत्‍म हुई ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज की बात की जाए तो वे चार टेस्‍टों की सात पारियों में वे महज 120 रन बना पाए हैं। उनका औसत 20 से भी कम रहा है, जो उनके करियर औसत 52.87 के आसपास भी नहीं है। वे केवल एक बार पचास का आंकड़ा पार कर पाए तकनीक के बादशाह।

राहुल के बारे में कहना चाहिए कि वो बल्‍लेबाजी की बुलेट मोटरसाइकिल हैं, जिन्‍हें गरम होने में वक्‍त लगता है। वे जितना अधिक वक्‍त क्रीज पर बिताते हैं उतनी ही उनकी बल्‍लेबाजी में निखार आता है। लेकिन, बीते वक्‍त के दौरान वे क्रीज पर पांव जमाने से पहले ही उल्‍टे लौटते दिखायी देते हैं। यह राहुल नहीं हो सकते। कई बार अच्‍छी शुरुआत को भी वे बड़ी पारी में तब्‍दील नहीं कर पाते।

राहुल की लड़ाई गेंदबाज या विपक्षी टीम से नहीं, बल्कि खुद अपने आप से है। और, खुद अपने आप से लड़ाई सबसे बड़ी मु‍श्किल होती है। उससे पार पाने में सबसे ज्‍यादा मशक्‍कत करनी पड़ती है। अनिल कुंबले और सौरव गांगुली की विदाई ने राहुल द्रविड़ को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। लेकिन, हम सब चाहते हैं कि दीवार उस दृढ़ता के साथ मैदान पर नजर आए जैसा कि वो बीते कई सालों से नजर आती रही है। ताकि, फिर कोई न कह सके, 'दीवार में दरार' या ढ़ह गयी दीवार।

Friday, November 7, 2008

पारी में आठ विकेट लेकर करियर का बेहतरीन आगाज़ किया क्रेजा ने

क्रेजा का पहला टेस्‍ट। पहली ही पारी में उन्‍होने आठ विकेट अपने नाम किए। भले ही इसके लिए उन्‍हें 215 रन खर्च करने पड़े, जो रनों के मामले में सबसे मंहगा डेब्‍यू है। लेकिन, क्रेजा को इस बात का मलाल नहीं होगा।
भारत मल्होत्रा
'आई हेव डन इट', राहुल द्रविड़ के रुप में अपना पहला टेस्ट विकेट लेने के बाद शायद यही कह रहे होंगे जेसन क्रेजा। ऑस्‍ट्रेलियाई टीम के साथ भारत आए इस ऑफ स्पिनर ने अपने करियर का खूबसूरत आगाज किया। अपनी पहली ही पारी में उन्‍होंने 8 विकेट लिए। जेसन क्रेजा बतौर स्पिनर ऑस्‍ट्रेलियाई टीम की पहली पसंद नही रहे। वजह, बोर्ड प्रेसिडेंट एकादश के खिलाफ उनका निराशाजनक प्रदर्शन। इस मैच में उनके गेंदबाजी पर नजर डालिए 31-2-199-0। उनके इस प्रदर्शन ने उन्‍हें भारत दौरे के पहले तीन मैचों से दूर रखा।
लेकिन, वो हैदराबाद था और यह नागपुर। वो अभ्‍यास मैच था और यह इंटरनेशनल। विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के इस नए मैदान पर जेसन क्रेजा बिलकुल नए रंग में देखने को‍ मिले। क्रेजा ने रन तो यहां भी‍ दिए पूरे 215। पर यहां उन्‍होंने अपने खर्च किए रनों की कीमत भी भारतीय बल्‍लेबाजों से खूब वसूली। उन्‍होने एक दो नहीं बल्कि पूरे आठ विकेट झटके।
टेस्‍ट क्रिकेट में अपना ओवर फेंकने आए क्रेजा का अनुभव अच्‍छा नहीं रहा। पहले ही ओवर में वीरेंद्र सहवाग ने उन पर हमला बोल दिया। एक चौका और एक छक्‍के की मदद से 11 रन बटोरे। लगा, क्रेजा की किस्‍मत यहां भी नहीं बदलने वाली। नागपुर और हैदराबाद में कोई बदलाव नहीं होगा। लेकिन, क्रेजा के इरादे कुछ और थे। वे साफ कर चुके थे कि भले ही रन बनाओ पर अपना विकेट मुझे दे जाओ।
उनके विकेटों की शुरुआत हुई, 'द वॉल' कहे जाने वाले राहुल द्रविड़ से। राहुल एक गेंद को काबू करने में नाकामयाब रहे और फॉरवर्ड शॉट लेग पर कैटिच को कैच थमा बैठे। क्रेजा को मिला उनके टेस्‍ट करियर का पहला विकेट। इसके बाद नम्‍बर आया वीरेंद्र सहवाग का। सहवाग, जो क्रेजा पर टेढ़ी निगाह रखे हुए थे। उनकी एक अंदर आती गेंद पर सहवाग ने कट करने की को‍‍शिश की, लेकिन गेंद बल्‍ले का अंदरूनी किनारा लेती हुई विकेटों से जा टकराई। इसके बाद क्रेजा ने लक्ष्‍मण को आउट कर अपने करियर का तीसरा विकेट लिया। यह तो कहानी थी मैच के पहले दिन की।
दूसरा दिन, एक नया दिन था। लेकिन, क्रेजा के लिए यहां भी कुछ नहीं बदला। भारतीय बल्‍लेबाज उन पर रन बनाते रहे और वे बदले में उनके विकेट झटकते रहे। यह सिलसिला चलता रहा। दूसरे दिन उनका पहला शिकार बने, भारतीय कप्‍तान महेंद्र सिंह धोनी। शायद भारतीय बल्‍लेबाज क्रेजा को नजरअंदाज कर रहे थे। यही बात इस ऑफ स्पिनर के पक्ष में जाती दिखी।
अपना आखिरी टेस्ट खेल रहे सौरव गांगुली को आउट कर क्रेजा ने अपने पांच विकेट पूरे किये। वे अपनी गेदों को फ्लाइट देने से नहीं डरे। नतीजा, उन्‍हें पिच से भी मदद मिली। जहीर खान, अमित मिश्रा और ईशांत शर्मा के विकेटों के साथ ही यह संख्‍या 8 तक जा पहुंची। इस प्रदर्शन से उन्‍होंने न सिर्फ टीम में अपनी दावेदारी को ही जायज ठहराया बल्कि 500 के पार जाते दिख रही भारतीय पारी को भी 441 पर ही समेट दिया।
लेकिन, इसके साथ ही क्रेजा के नाम कुछ और रिकॉर्ड भी जुड़े। कुछ ऐसे रिकॉर्ड जो उनके इस प्रदर्शन को कमतर करके दिखाते हैं। अपने पहले ही मैच में उन्‍होंने जो 215 रन खर्च किए, वो अपने आप में एक रिकॉर्ड बन गया। अपनी पहली पारी में किसी भी गेंदबाज ने इतने ज्‍यादा रन नहीं दिए। इसके साथ ही भारतीय जमीन पर किसी भी गेंदबाज का यह सबसे मंहगा प्रदर्शन भी है। लेकिन,हर बार आंकडों के आइने में प्रदर्शन को नहीं देखना चाहिए। क्रेजा ने रन भले दिए हों, लेकिन ‍सच्‍चाई यही है कि नागपुर टेस्ट में भारतीय पारी को समेटने का काम सिर्फ और सिर्फ उन्होंने ही किया। 26 साल के इस खिलाड़ी के लिए इससे बेहतरीन आगाज़ नहीं हो सकता था।

Tuesday, November 4, 2008

मैं और मेरा कुंबले

मुझे रह-रहकर बचपन के वो दिन याद आ रहे हैं जब कभी भारतीय गेंदबाज विकेटों के लिए तरसते नजर आते तो मैं जोर से चिल्‍लाता अरे! कुंबले को दो ना यार। ऐसे मौके कम ही याद आते हैं जब कुंबले मेरी उम्‍मीदों को पूरा करने में कामयाब न रहे हों।

भारत मल्‍होत्रा

अनिल कुंबले ने अपनी छोटी बच्‍ची को गोद में उठा रखा था। उसी बीच कुंबले के सम्‍मान में मैदान में तालियां बजने लगी। वो छोटी बच्‍ची भी अपने छोटे छोटे हाथों से तालियां बजाने लगी। इस बात का अंदाजा भी शायद उसे नहीं रहा होगा कि आखिर सब लोग तालियां क्‍यों बजा रहे हैं। शायद वो बच्‍ची नहीं जानती थी कि आज वो अपने पापा के साथ मैदान पर क्‍यों है। लेकिन, चंद साल गुजर जाने के बाद जब उसके जेहन में इस पल की तस्‍वीर उभरेगी उसे अपने पिता के कद का अंदाजा होगा।

इसी बीच कुंबले की विदाई को यादगार बनाने की होड़ मच गयी। बारी थी उसे कंधे पर बैठाने की। वो आदमी जिसने बरसों बरस अपने कंधों पर भारतीय गेंदबाजी की कमान ढोयी है आज वो खुद को इस खेल से अलग कर रहा है। कुंबले के सभी साथी मैदान पर उसके आखिरी कदमों में उसके हमसफर बने रहना चा‍हते हैं। जहीर खान और राहुल द्रविड़ कुंबले को बाजुओं में उठाए दिखायी दिए। इसी बीच महेंद्र सिंह धोनी ने कुंबले को अपने कंधों पर बैठाकर मैदान में घूमे। तो, ऐसा लगा कि कहीं न कहीं यह इस बात को भी दिखा रहा है कि अब ‘धोनी कुंबले की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार हैं। शायद यही मतलब रहा भी होगा।

मैदान पर कैमरे वाले भी कुंबले इस तस्‍वीर को कैद करने में मशगूल नजर आए। आखिरी बार कुंबले इंडियन कैप पहने मैदान पर जो थे। 192 नम्‍बर लिखे हुए नीले रंग की इंडियन कैप जो पिछले 18 सालों से उनके साथ थी। उस लम्‍हे को टेलीविजन स्‍क्रीन पर देखते हुए आंखें नम हो उठी, ऐसा लगा कि जैसे कोई अपना छोड़कर जा रहा है। हालांकि, असल जिंदगी में न मेरी कुंबले से न कभी मुलाकात हुई और न ही उसे मैदान पर कभी खेलते देखा। जब कभी भी उन्‍हें देखा तो बस 21 इंच की स्‍क्रीन के पार।

कुंबले को पहले पहल मैने कब खेलते देखा यह मुझे याद नहीं आता, लेकिन क्रिकेट के मैदान पर फेंकी गयी आखिरी गेंद को भुला पाना मेरे लिए कभी भी आसान नहीं होगा। एक ऐसा खिलाड़ी जो सिर्फ अपना काम करने मैदान पर उतरता। पूरी मेहनत और सर्मपण के साथ उसे अंजाम देता और उसके बाद वापस अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में चला जाता। मेरी नजर में यही रही है अनिल कुंबले की छवि।

खेल के प्रति कुंबले के जज्‍बे का एक ताजा उदाहरण देखिए, कोटला टेस्‍ट के चौथे दिन, कुंबले की एक गेंद पर मिशेल जॉनसन ने शॉट लगाया। गेंद बल्‍ले का किनारा लेती हुई खड़ी हो गयी। कुंबले ने पीछे दौड़ते हुए उसे कैच कर दोबारा विकेट कीपर की ओर थ्रो भी किया। इसके बावजूद कि उनके बाएं हाथ की उंगली में 11 टांके लगे हुए थे। ये उस जूनून को दिखाता है जिसके साथ कुंबले ने इस खेल को जीया है।

मैन ऑफ द मैच वीवीएस लक्ष्‍मण की बात पर गौर फरमाइए, हमने आसान से कैच छोड़े और कुंबले ने ऐसा कैच किया। यह अपने आप में उनके व्‍यक्तित्‍व को बयान करता है। रिकी पोंटिंग कहते हैं कि हर ऑस्‍ट्रेलियाई जो कुंबले के खिलाफ खेला है खुद पर फक्र महसूस करता है। वो कंगारू जो विरोधियों पर हमेशा हावी होने को आतुर रहते हैं भी जंबो की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते। अब यही है कुंबले का जादू उनकी पर्सनेलिटी।

वो दिन भला कैसे कोई भूल सकता है जब कुंबले एंटीगुआ में वेस्‍टइंडीज के खिलाफ टूटे जबड़े के साथ मैदान पर उतरे। उनके इस जज्‍बे ने मुझे उनका कायल बना दिया। वो आदमी जो मैच में अपनी आखिरी गेंद भी उसी जज्‍बे के साथ फेंकता जितनी कि पहली। हर गेंद पर पूरा जोश और पूरी ताकत लगा देते नजर आते थे कुंबले। कुंबले ने मैदान पर ही खेल को अलविद कहा, भला इससे बेहतर और क्‍या हो सकता है। और अगर वो मैदान उनका अपना कोटला हो तो ये सोने पर सुहागा जैसी बात हो गयी। हर खिलाड़ी की तमन्‍ना होती है कि उसकी विदाई शानदार हो। और जो विदाई कुंबले को मिली है मेरी याद में ऐसी किसी और भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी को नहीं मिली।

मुझे रह रहकर मेरे बचपन के वो दिन याद आ रहे हैं जब कभी भारतीय गेंदबाज विकेटों के लिए तरसते नजर आते तो मैं जोर से चिल्‍लाता अरे! कुंबले को दो ना यार। मुझे ऐसे मौके कम ही याद आते हैं जब कुंबले मेरी उन उम्‍मीदों को पूरा करने में कामयाब न रहे हों। जब कभी उन्‍हें उनके शुरुआती ओवरों में विकेट मिलता तो बड़ी खुशी होती ‘अब ये अकेला ही पूरी टीम खा जाएगा’ बस यही विश्‍वास मन में जाग उठता था।

सचिन, सौरव, राहुल, लक्ष्‍मण और कुंबले। यह सिर्फ खिलाडियों के नाम भर नहीं हैं। ये क्रिकेट के एक युग की पहचान भी हैं। ये वो खिलाड़ी हैं जिन्‍हें मैदान पर उतरते देख मैने और मेरे जैसे लाखों खेल के दीवानों ने खेल को समझना शुरु किया होगा। जिनके बल्‍ले की चमक और गेंद की धार ने अनगिनत लोगों को अपनी ओर न सिर्फ खींचा बल्कि उससे बांधे भी रखा।

अपने क्रिकेट को समझने और जानने के अपने शुरुआती दौर में मैने कभी नहीं सोचा कि इन नामों के बिना भी क्रिकेट देखना होगा। यह सोचते ही मन में तरह तरह की शंकाएं उठने लगती कि जब ये नहीं होंगे तो भारतीय टीम का क्‍या होगा। हम कभी इनके बिना जीत नहीं पाएंगे। लेकिन, पहले सौरव की इस सीरीज के बाद संन्‍यास की घोषणा और अब अनिल कुंबले।

इस खबर के बाद मैने अपने दोस्‍त को फोन किया और कहा कुंबले ने संन्‍यास ले लिया। हैरान तो वो भी हुआ, फिर बोला चलो अच्‍छा हुआ। सही मौके पर फैसला ले लिया। टीम से निकाले जाने से अच्‍छा है खुद ही अलविदा कह दो। मुझे लगा सही ही कह रहा है खुद ब खुद ऐसा फैसला कर कुंबले ने अपने उस कद को ऊंचा कर लिया है जो उन्‍होने इतने साल क्रिकेट खेलने के बाद बनाया। वो समय खेल से गए जब उनके जाने की चर्चाएं गरम नहीं थी। वो टीम के साथ थे और टीम के कप्‍तान थे।

इस बीच मैं दोबारा कुछ सवालों से रु-ब-रु होता हूं । सवाल इस बार विकल्‍प को लेकर नहीं इस बात को लेकर हैं कि अ‍गला कौन? इस दौर में जब खिलाडि़यों पर मैदान से ज्‍यादा विज्ञापन जगत में रहने का आरोप लगता है कुंबले इससे बाजारवाद से काफी हद तक बचे रहे। इक्‍का दुक्‍का अपवादों को छोड़ दें तो कुंबले कम ही टीवी पर किसी उत्‍पाद के साथ जुड़े नजर आए। वे चकाचौंध से दूर रहे सिर्फ अपने काम को करते हुए। शायद, इसी वजह से वो क्रिकेट के सही मायनों में एक हीरो रहे। एक ऐसे हीरो जिसे भले ही वो पहचान और रुतबा हासिल न हुआ हो जिसका वो हकदार था लेकिन, वो कभी भी उस बात का मलाल करता नहीं दिखा।

उनके व्‍यक्तित्‍व की एक बड़ी खूबी रही उनकी सादगी। बोलने का सहज और मधुर अंदाज। प्‍यारी सी मुस्‍कुराहट उन्‍हें दिल में और भी गहरा बसा देती है। क्रिकेट अगर जेन्‍टेलमैन्‍स गेम है तो सही मायनों में कुंबले उसे पूरा करते दिखे। अपने 18 साल लंबे करियर में इस खिलाड़ी पर कभी भी किसी भी तरह का आरोप नहीं लगा। न मैच फिक्सिंग, न डोपिंग और न ही टीम को किसी भी तरह से नीचा दिखाने का। पूरी ईमानदारी और शिदद्त के साथ खेल को जीया कुंबले ने। ना वाद, न विवाद, बस अपने काम के प्रति पूरी निष्‍ठा। यही तो है अनिल कुंबले। अपने करियर के आखिरी बयान में कुंबले ने कहा कि 'मेरी चाहत है कि मुझे एक ऐसे खिलाड़ी के रूप में याद किया जाए जिसने हमेशा अपना 100 प्रतिशत दिया हो।' कुंबले की यह बात ही उनके कॅरियर की बानगी लगती है।

लेकिन जीवन का पहिया नहीं रुकता। कुंबले के जाने का मलाल तो लंबे वक्‍त तक रहेगा। लेकिन, राजकपूर साहब का एक डॉयलाग था- शो मॅस्‍ट गॉ ऑन। कुंबले तो नहीं होंगे लेकिन खेल चलता रहेगा। इस बीच एक आवाज सुनने को नहीं मिलेगी। 'बॅालिंग जंबो।'

Tuesday, October 28, 2008

आपसी मुकाबलों के बीच चलेगा कोटला का मुकाबला!

भारत मल्‍होत्रा

दिल्‍ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर सिर्फ भारत और ऑस्‍ट्रेलिया ही आमने सामने नहीं होंगी बल्कि इसके साथ ही मैदान पर कुछ व्‍यक्गित मुकाबले देखने को भी मिल सकते हैं। जो मुख्‍य मुकाबले पर अपनी छाप छोड़ते नजर आएंगे।

दिवाली की अगली सुबह। दिल्‍ली का फिरोजशाह कोटला मैदान। भारत और ऑस्‍ट्रेलिया एक बार फिर आमने-सामने। बॉर्डर-गावस्‍कर सीरीज के अहम मुकाबले के लिए तैयार दोनो टीमें। भारत साफ कर चुका है कि वो कोटला का किला जीतकर सीरीज का फैसला यहीं करने का इरादा रखता है। वहीं दूसरी ओर ऑस्‍ट्रेलियाई टीम मोहाली की हार के बाद जख्‍मी शेर जैसी हो गयी है। वो हर हाल में कोटला पर मोहाली का हिसाब चुकता करना चाहेगी। टीम ने इस मुकाबले के लिए कड़ी तैयारी भी की। रिवर्स स्विंग से निपटने के लिए मनोज प्रभाकर से की गयी बात असफल रहने के बाद, स्पिन के गुर सीखने के लिए बिशन सिंह बेदी को याद किया। बेदी ने भी मेहमानों की मदद करने में कोई गुरेज नहीं किया। पूर्व कप्‍तान स्‍टीव वॉ भी अपनी टीम को सलाह देते देखे गए। इन सब बातों से ही समझा जा सकता है कि कंगारुओं के लिए यह मुकाबला कितना अहम है।

लेकिन जैसा कि होता चला आया है। एक जंग में कई मोर्चे होते हैं और हर मोर्चे पर अलग अलग सिपाहसलार। इन मुकाबले में भी ऐसा ही नजारा देखने को मिलेगा। जब दोनो टीमें अपनी पूरी ताकत से इस दूसरे के खिलाफ जी-जान लगा रही होंगी, उसी बीच मैदान पर कुछ व्‍यक्तिगत मुकाबले भी साथ साथ चल रहे होंगे।

मैथ्‍यू हैडन अपने जेहन में यह विचार कर रहे होंगे कि जहीर खान का तिलिस्‍म कैसे तोड़ना है। वहीं, ईशांत शर्मा की निगाहें विरोधी सेनानायक रिकी पोंटिंग की पोस्‍ट को कब्‍जाने पर होंगी। तो, हरभजन अपने फिरकी के जाल में माइकल हसी को फंसाने की रणनीति बनाते देखे जा सकेंगे। दरअसल, ये तीन आपसी मुकाबले, दोनो टीमों के मुकाबले के फैसले में भी निर्णायक भूमिका अदा करेंगे।

इस सीरीज में अब तक ऑस्‍ट्रेलिया के लिए सबसे बड़ी समस्‍या मैथ्‍यू हैडन की खोयी हुई लय है। हैडन ने इस सीरीज से पहले भारत के खिलाफ बेहतरीन खेल दिखाया है। लेकिन, इस सीरीज में जहीर की गेंदो ने उन्‍हें खुलकर खेलने का मौका ही नहीं दिया। चार बार इन दोनो का सामना हुआ और तीन बार हैडन जहीर का ही ि‍शकार बने। कमाल की बात तो यह रही कि इन तीन बार में से भी जहीर ने अपने पहले ही ओवर में हैडन को चलता किया। दोनो बार वे खाता खोलने में भी कामयाब नहीं हुए। इससे ऑस्‍ट्रेलिया पर मैच की शुरुआत में ही दबाव पड़ गया। वैसे वेस्‍टइंडीज के खिलाफ चोट की वजह से बाहर रहे हैडन का चलना कंगारुओं के लिए बेहद जरूरी है। हैडन अब बल्‍ले के साथ साथ दिमागी जंग भी लड़ने लगे हैं। वे कहते हैं कि जहीर से पार पाने का इरादा उन्‍होने तलाश लिया है। खैर, ये तो राज तो कोटला पर मुकाबले के बाद ही खुलेगा कि हैडन का बल्‍ला बोलता है या जहीर की गेंद। वैसे कुल मिलाकर जहीर अब तक सात बार हैडन का विकेट चटका चुके हैं। लेकिन, इस बीच हरभजन सिंह का बयान आता है ‘हैडन एक बेहतरीन बल्‍लेबाज हैं, वे अभी बुरे वक्‍त से गुजर रहे हैं, लेकिन एक बड़ी पारी उन्‍हें उनकी लय में ला सकती है। एक बार सेट होने के बाद वे लंबी पारियां खेलते हैं। हम चाहेंगे कि वो भारत के खिलाफ ऐसा न करें।‘
यह बात किस ओर इशारा करती है, यहीं कि भारतीय टीम भी जानती है कि हैडन किस बला का नाम है। उनके बल्‍ले का जिन्‍न अभी शांत है। लेकिन, अगर वो बाहर निकला तो, भारत के लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े कर सकता है।

हैडन के जल्‍दी आउट होने के बाद कंगारु कप्‍तान रिकी पोंटिंग विकेट पर मोर्चा संभालने आते हैं। रिकी के लिए भारत के खेलना किसी बुरे सपने जैसा ही रहा है। लेकिन, सीरीज की अपनी पहली ही पारी में उन्‍होने शतक जड़ कर अपने ऊपर लगे इस धब्‍बे को हटाने का काम किया। वे खुद को साबित करते दिखाई दिए। लेकिन, उस एक पारी के बाद रिकी का स्‍कोर देखें 17,5 और 2 । यानि तीन पारियों में वे कुल मिलाकर अपनी पहली पारी का 5 वां हिस्‍सा ही बना पाए। इससे पहले पोंटिंग को भारत की स्पिन गेंदबाजी के खिलाफ ही कमजोर समझा जाता रहा, लेकिन इस बार उनके सामने एक नया दुश्मन खड़ा था, ईशांत शर्मा। शर्मा पोंटिंग के लिए सिरदर्द तो भारत के ऑस्‍ट्रेलियाई दौरे पर ही बन गए थे। लेकिन, इस सीरीज में कंगारु कप्‍तान को किसी भी तरह का रियायत देने के मूड में दिखाई दिए। इस सीरीज में तीन बार दिल्‍ली के इस ‘लंबू’ ने पंटर को चलता किया। इनमे से भी मोहाली टेस्‍ट में ऑस्‍ट्रेलिया की दूसरी पारी में जिस तरह से ईशांत ने पोंटिंग के डिफेंस को भेदते हुए उनके गिल्लियां बिखेरीं वो अपने आप में एक कहानी कहती है। पोंटिंग एंड कंपनी दबाव में है। लेकिन टेस्‍ट क्रिकेट में 35 शतक, मौजूदा वक्‍त के सबसे बेहतरीन बल्‍लेबाजों में शुमार, और 10 हजार से ज्‍यादा टेस्‍ट रन। ये आंकड़े यह भी दिलाते हैं पोंटिंग एक विश्वस्‍तरीय बल्‍लेबाज हैं और उनकी इस प्रतिभा को नजरअंदाज करना भारत के लिए घातक हो सकता है।

माइकल हसी, मौजूदा दौर के सबसे कामयाब बल्‍लेबाज। डॉन ब्रेडमैन के बाद सबसे ज्‍यादा टेस्‍ट औसत के साथ खड़े माइकल हसी। हसी ने इस सीरीज में अब तक अपने साथी‍ खिलाडियों के मुकाबले अच्‍छा ही खेल दिखाया है। भारत में अपनी पहली पारी में उन्‍होने 146 रन बनाए। इस पारी से जरिए उन्‍होनें ऐलान कर दिया कि ‘यूं ही न छोडेगें मैदान, लगा देंगे अपनी पूरी जान’। दरअसल, 70 के करीब का टेस्‍ट औसत लिए माइकल हसी अपने साथ एक अलग ही तरह का रुतबा लेकर चलते हैं। हर बार कुछ ज्‍यादा कर दिखाने का दबाव हसी पर हमेशा रहता है। मोहाली टेस्‍ट में भी ऑस्‍ट्रेलिया खेमा और प्रशंसक उनसे इसी तरह के किसी करिश्मे की आस लगाए बैठे थे। लेकिन, हसी इस बार अपनी प्रतिभा के साथ न्‍याय नहीं कर पाए। सिर्फ 1 रन बनाकर वे हरभजन की एक गेंद पर विकेटों के सामने पाए गए। इस सीरीज में हरभजन ने दो बार हसी का विकेट लिया है। हसी नम्‍बर 6 पर बल्‍लेबाजी करते हैं। टेस्‍ट क्रिकेट मे यह काफी अहम जगह होती है। और, हसी ऑस्‍ट्रेलिया के लिए इस जगह पर बेहतरीन खेल दिखाते आए हैं। उनके खेल और उनकी प्रतिभा के बारे में कुछ भी कहना सूरज को रोशनी दिखाने जैसा होगा। मिस्‍टर क्रिकेट के नाम से मशहूर हसी लंबी और उपयोगी पारियां खेलने में उस्‍ताद माने जाते हैं। निचले क्रम के बल्‍लेबाजों के साथ अच्‍छा तालमेल बैठाकर पारी को लंबा खींचने की कला में माहिर हैं हसी। बोर्ड एकादश के खिलाफ अभ्‍यास मैच में उन्‍होने स्‍टुअर्ट क्‍लॉर्क के साथ मिलकर 40 ओवर तक विरोधी टीम को आखिरी विकेट के लिए तरसाए रखा। हसी का विकेट किसी भी टीम के लिए बेशकीमती होगा। ऐसे में, दिल्‍ली में धमाल करने के लिए भारतीय टीम चाहेगी कि हसी कम से कम यहां भी शांत ही रहें।

Monday, September 22, 2008

नए जरूर हैं मगर कमजोर नहीं हैं कंगारू

टीम ऑस्‍ट्रेलिया बॉर्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी खेलने के लिए भारत आ चुकी है। सीरीज शुरू होने से पहले ऑस्‍ट्रेलियन टीम मैनेजमेंट की ओर से लगातार ऐसे बयान आ रहे हैं जो टीम के अनुभवहीन होने की ओर इशारा करती हैं। हो सकता है यह बात कई मायनों में सही हो, लेकिन इसके दूसरे पहलू की ओर देखें तो एक अलग ही तस्‍वीर उभर कर सामने आती है।
ऑस्‍ट्रेलिया की मौजूदा टीम में केवल मैथ्‍यू हेडन, माइकल क्‍लार्क, कप्‍तान पोंटिंग और साइमन कैटिच ही ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्‍होंने भारत में टेस्‍ट मैच खेला है। 15-सदस्‍यीय इस टीम में चार खिलाड़ी तो ऐसे हैं, जिन्‍होंने ऑस्‍ट्रेलिया के लिए अभी तक कोई टेस्‍ट मैच नहीं खेला है। मगर इसके बावजूद इन्‍हें अनुभवहीन कहना तथ्‍यों का एकपक्षीय मूल्‍यांकन हो सकता है। टीम में शामिल माइकल हसी, फिल जैक्‍स, डॉग बालिंगर जैसे तमाम ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके पास घरेलू स्‍तर पर काफी अनुभव है। बॉलिंगर ने फर्स्‍ट क्‍लास क्रिकेट में 45 मैचों में 137 विकेट हासिल किए हैं, जो इस बाएं हाथ के तेज गेंदबाज की क्षमता को बताता है। बॉलिंगर वर्तमान में भारत दौरे पर आई ऑस्‍ट्रेलिया 'ए' टीम में भी शामिल हैं। जस्टिन लेंगर के संन्‍यास के बाद टीम में शामिल किए गए फिल जैक्‍स ओपनिंग में मैथ्‍यू हेडन के नए जोड़ीदार हैं। जैक्‍स भारतीय दर्शकों के लिए नए हो सकते हैं, लेकिन उन्‍होंने घरेलू मुकाबलों में 11605 रन बनाए हैं। टेस्‍ट मैचों में भी उनका औसत 45 से ज्‍यादा है। माइकल हसी ने भले ही भारत में कोई टेस्‍ट मैच न खेला हो मगर उनकी बल्‍लेबाजी क्षमता से हर कोई वाकिफ है। टेस्‍ट मैचों में उनकी बल्‍लेबाजी का औसत 68 के ऊपर है, जो डॉन ब्रैडमेन के बाद दूसरा सबसे अच्‍छा औसत है। इसके अलावा ऑस्‍ट्रेलिया के घरेलू मैचों में हसी करीब 18 हजार रन बना चुके हैं।एंड्रयू सायमंड्स की अनुपस्थिति में टीम में ऑलराउंडर की हैसियत से शामिल किए गए शेन वाटसन आईपीएल के दौरान 'प्‍लेयर ऑफ द टूर्नामेंट' रहे थे। अब भारत में टेस्‍ट मैच खेलने के नाम पर उनके पास अनुभव भले न हो, मगर बल्‍ले और गेंद से उनकी क्षमता मैच का रुख बदलने का माद्दा रखती है। गेंदबाजी की कमान संभाल रहे ब्रेट ली किसी पहचान के मोहताज नहीं है। ली ने भारत में टेस्‍ट मैच भले न खेले हों, मगर वह ऑस्‍ट्रेलिया के लिए 68 टेस्‍ट मैच खेल चुके हें। इसके अलावा भारत में 12 वनडे और आईपीएल के चार मैचों का तर्जुबा भी उनके साथ है। टीम में शामिल मिशेल जॉनसन भी भारतीय बल्‍लेबाजी के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं। जॉनसन ने बड़ोदरा में खेले गए एक वनडे मैच में 10 ओवरों में 26 रन देकर पांच भारतीय बल्‍लेबाजों को अपना शिकार बनाया था। हालांकि भारत में टेस्‍ट मैच खेलने के नाम पर उनका भी खाता खाली है। स्‍टुअर्ट क्‍लॉर्क अपनी लाइन और लैंग्‍थ से बल्‍लेबाजों के लिए परेशानी का सबब बनते रहे हैं। भारत में पहली बार टेस्‍ट मैच खेलने से पहले क्‍लॉर्क 18 टेस्‍ट मैचों में 81 विकेट लेकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं। विकेटकीपिंग मे एडम गिलक्रिस्‍ट के संन्‍यास लेने के बाद टीम में आए ब्रेड हैडिन के घरेलू खाते में 5 हजार से ज्‍यादा रन बनाना उनकी प्रतिभा को दिखाता है। वैसे खुद को गिलक्रिस्‍ट के दस्‍तानों में फिट कर पाना हैडिन के लिए किसी चैलेंज से कम नहीं होगा। कुल मिलाकर यह तो माना जा सकता है कि भारत दौरे पर आई ऑस्‍ट्रेलिया की यह टीम उसकी सर्वश्रेष्‍ठ टीम नहीं है, लेकिन अनुभवहीन कहकर उसे सिरे से खारिज करना खतरनाक हो सकता है।सिर्फ अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट का अनुभव ही अच्‍छे प्रदर्शन का पैमाना नहीं होता। जहां तक ऑस्‍ट्रेलियन टीम मैनेजमेंट की बात है, तो ये बयान उनके माइंड गेम का नया रूप हो सकता है। उनका यह प्रयास भारतीय टीम को कंफर्ट जोन में धकेलने के बाद उन पर चोट करने की रणनीति का एक हिस्‍सा हो सकता है। भारत को इस बात का ख्‍याल रखना पड़ेगा कि वे किसी भी लिहाज से कंगारूओं को हल्‍के में लेने की भूल न करे वरना, कहीं साल 2005 का इतिहास दोहराया न जाए।

Sunday, September 21, 2008

भारत बनाम ऑस्‍ट्रेलिया, सबसे बड़ा मुकाबला

पिछले कुछ सालों में भारत-ऑस्‍ट्रेलिया मुकाबलों में क्रिकेट का जो रोमांच और शानदार स्‍तर देखने को मिला है, उसके आगे दूसरी श्रृंखलाओं की चमक फीकी पड़ गई है। चाहे वह ऑस्‍ट्रेलिया-इंग्‍लैंड की एशेज सीरीज हो या फिर भारत-पाक सीरीज। आज की तारीख में बिना शक कहा जा सकता है कि भारत-ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज दुनिया की सर्वश्रेष्‍ठ बन गई है।
साल 2008 तारीख 9 अक्‍टूबर टेस्‍ट क्रिकेट के इतिहास का एक अहम दिन, जब भारत और ऑस्‍ट्रेलिया की टीमें जब बार्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी पर कब्‍जा जमाने के लिए आमने-सामने होंगी। क्रिकेट का रोमांच अपने चरम पर होगा। दोनों देशों के बीच हुए पिछले मुकाबलों को देखते हुए यह उम्‍मीद करना बेमानी नहीं होगा। पूरी दुनिया में खेली जा रही क्रिकेट पर नजर डालें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत-ऑस्‍ट्रेलिया का मुकाबला दुनिया का सबसे बड़ा और कड़ा मुकाबला हो गया है। इस सीरीज में एक ओर ऑस्‍टेलिया है, जो विश्‍व क्रिकेट के शिखर काबिज है तो दूसरी ओर भारत है, जो क्रिकेट में ऑस्‍ट्रेलियाई सत्‍ता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

भारत और ऑस्‍ट्रेलिया के बीच खेली जा रही यह सीरीज कितनी बड़ी है, इस बात का अंदाजा दोनों ओर से हो रही बयानबाजी से ही लगाया जा सकता है। ऑस्‍ट्रेलिया के पूर्व और वर्तमान दोनो ही खिलाड़ी इसे इंग्‍लैंड के साथ होने वाले अपने सबसे पुराने मुकाबले ‘एशेज’ से भी बड़ी मान रहे हैं। जी हां, साइमन कैटिच हों या‍ एडम गिलक्रिस्‍ट हां या फिर और भी पहले के खिलाड़ी और श्रीलंका के पूर्व कोच डेव वॉटमोर, इन सबका यही कहना है। वहीं दुनिया के महानतम बल्‍लेबाजों में से एक सचिन तेंदुलकर इसे सांस थमा देने वाले भारत-पाकिस्‍तान के मुकाबले से बड़ा मानते हैं। अगर सचिन और गिलक्रिस्‍ट जैसे धुरंदर यह बात कहते हैं इस बात में दम होना लाजमी है।

भारत-ऑस्‍ट्रेलिया के बाच खेले गए मैचों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है। 1996 में शुरू हुई बार्डर-गावस्‍कर ट्राफी अभी तक सात बार खेली गई है, जिसे भारत और ऑस्‍ट्रेलिया दोनों ने 3-3 बार जीता है। 2003-04 में यह सीरीज 1-1 से ड्रा रही थी। इसमें अभी तक कुल 22 मैच खेले गए हैं जिनमें से 10 बार आस्‍ट्रेलिया विजयी रहा है और 8 बार भारत ने जीत का स्‍वाद चखा है, ज‍बकि 4 मैच ड्रा रहे। ये आंकड़े दोनों देशों के बीच कड़ी प्रतिस्‍पर्द्धा की तस्‍वीर पेश करते हैं। सचिन-वार्न, द्रविड़-मॅक्‍ग्राथ, हरभजन-पोंटिंग, लक्ष्‍मण-गिलेस्‍पी, कुंबले-गिलक्रिस्‍ट के बीच संघर्ष को भला कौन भूल सकता है। इनमें से कई नाम इस बार नहीं हैं, लेकिन इस बार भी वहीं संघर्ष होने की उम्‍मीद है, भले ही इसमें पात्र बदल जाएं।
दोनो टीमों के बीच की जंग अब सिर्फ बल्‍ले और गेंद तक ही सिमट कर नहीं रह गई है। स्‍लेजिंग की जिस कला में ऑस्‍ट्रेलियाई महारथ रखते हैं, भारत उसमें भी उन्‍हें बराबरी की टक्‍कर दे रहा है। भारत लगातार ऑस्‍ट्रेलिया की सत्‍ता को चुनौती दे रहा है, उसके नजदीक पहुंच रहा है और इस बात से कंगारू भी वाकिफ हैं। दोनों देशों के खिलाडियों को भी यह अच्‍छी तरह पता है कि मुकाबला काफी अहम है। इसलिए खिलाड़ी इसमें अपनी पूरी ताकत झोंकने को तैयार रहते हैं। भारत जानता है कि विश्‍व चैंपियन को हराने का क्‍या मतलब होता है। वहीं ऑस्‍ट्रेलिया को भी पता है कि भारत को उसके घर में हराना सबसे मुश्किल काम है।

भारत-ऑस्‍ट्रेलिया सीरीज की चमक बढ़ने की वजहें हैं। ऐसा कोई एक दिन में नहीं हुआ है। पहले ऐशेज को दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित सीरीज होने का रुतबा हासिल था। लेकिन, पिछले दो दशक के दौरान ऑस्‍ट्रेलिया की मजबूत होती गई, तो इंग्‍लैंड पिछड़ता गया। लिहाजा, एशेज एकतरफा मुकाबला बनके रह गया और इसकी चमक फीकी पड़ गई। 2005 में 16 साल बाद इंग्‍लैंड ने ऑस्‍ट्रेलिया को हराकर थोड़ी उम्‍मीद जगाई थी, लेकिन यह जीत सिर्फ तुक्‍का ही साबित हुई। ऑस्‍ट्रेलिया ने अगली एशेज में इंग्‍लैंड को 5-0 से धो दिया। एक मौके को छोड़ दिया जाए तो पिछले दो दशक में एशेज एकतरफा शो ही रहा है।

कुछ सालों पहले तक भारत-पाकिस्‍तान के बीच मुकाबलों को क्रिकेट से ज्‍यादा एक जंग के तौर पर देखा था। इन दोनों देशों के मैच दुनिया में सबसे ज्‍यादा देखे जाते थे। इन मैचों में दोनों देशों के अप्रिय सियासी रिश्‍तों की बानगी देखने को मिलती थी। ऐसा लगता था कि मैच में हार-जीत नहीं, दोनों देशों की किस्‍मत दांव पर लगी है। सन् 1986 में शारजाह में हुए ऑस्‍ट्रेलेशिया कप के फाइनल में चेतन शर्मा द्वारा फेंकी गई मैच की आखिरी गेंद पर जावेद मियांदाद के छक्‍के ने इस तनाव भरे रोमांच को एक नया आयाम दे दिया। भारत उस हार से लंबे अर्से तक नहीं उबर पाया। लेकिन, वक्‍त के साथ दोनों देशों के सियासी रिश्‍तों और क्रिकेट मैच, दोनों के उबाल में कमी आ गई और क्रिकेट जंग के बजाए एक खेल में तब्‍दील होता नजर आने लगा। ऐसा नहीं है कि भारत-पाक मुकाबलों का रोमांच कम हो गया है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वह तनाव अब उस रूप में नहीं है।

भारत-ऑस्‍ट्रेलिया के बीच जबर्दस्‍त स्‍पर्द्धा को देखते हुए यह कहना बेमानी नहीं होगा कि एशेज का रुतबा और भारत-पाक मुकाबलों का तनाव, दोनों अब बार्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी के साथ जुड़ गए हैं। यही वजह है कि दुनिया भर के क्रिकेटप्रेमियों की निगाहें इस सीरीज पर लगी हुई हैं।

Thursday, September 18, 2008

बल्‍लेबाजी की अहम कड़ी है नम्‍बर सात


टेस्‍ट क्रिकेट में नंबर सात का बल्‍लेबाज हमेशा से महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। रिचर्ड हेडली, इयान बॉथम, इमरान, कपिल, गिलक्रिस्‍ट और धोनी जैसे बल्‍लेबाजों ने इस नंबर पर बल्‍लेबाजी कर अपनी टीम को जीत दिलाई है, तो कई मौकों पर अपनी टीम को हारने से भी बचाया है। इसीलिए बल्‍लेबाजी में इस क्रम को काफी क्रिटिकल माना जाता है।


जनवरी 1937, ऑस्‍ट्रेलिया और इंग्‍लैंड एशेज के तीसरे टेस्‍ट में आमने-सामने। दूसरी पारी में महज 97 रन पर ऑस्‍ट्रेलिया की आधी टीम पविलियन लौट चुकी थी। इस वक्‍त बल्‍लेबाजी करने आते हैं सर डॉन ब्रेडमैन। दूसरे छोर पर फिंगलेटन बल्‍लेबाजी का मोर्चा संभाले खड़े हैं। इंग्‍लैंड को मैच में वापसी की सुगंध आने लगी है, मगर ब्रेडमैन ऐसे मौके पर 270 रनों की पारी खेलते हैं। जब फिंगलेटन के आउट होने के बाद यह साझेदारी टूटती है तो टीम का स्‍कोर 443 रन तक पहुंच चुका होता है। ऑस्‍ट्रेलिया 564 रनों का विशाल स्‍कोर बनाकर इंग्‍लैंड के लिए वापसी के सभी रास्‍ते बंद कर देता है। ऑस्‍ट्रेलिया मैच 365 रनों से जीत लेता है।
अगस्‍त 2007, लॉर्डस के मैदान पर भारत और इंग्‍लैंड आमने-सामने। पहली पारी में भारत 97 रनों से पिछड रहा भारत दूसरी पारी में भी 145 के स्‍कोर पर पांच विकेट खोकर भारत संकट में आ गया था। इस मौके पर धोनी आते हैं। वे पुछल्‍ले बल्‍लेबाजों के साथ मिलकर टीम के स्‍कोर को 282 तक ले जाते हैं और भारत को एक निश्चित सी लग रही हार के मुंहाने से वापस लाते हैं। अपनी 92 रनों की पारी के दौरान विकेट को मजबूती से थामे रहते हैं। इंग्‍लैंड और जीत के बीच वे चट्टान की तरह अड़े रहते हैं।
साल 2006, भारत और पाकिस्‍तान अपनी चिर परिचित प्रति‍द्वंदिता के बीच आमने सामने। पाकिस्‍तान के 588 रनों के जवाब में भारत तेंदुलकर का विकेट खोकर (281/5) संकट की स्थिति में। इन हालात में इरफान पठान नंबर 7 पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। इस स्थिति महेंद्र सिंह धोनी और इरफान पठान के बीच 210 की साझेदारी ने न सिर्फ टीम को फॉलोऑन से बचाया, बल्कि मैच ड्रॉ करवाने में भी अहम भूमिका निभाई।
भले ही इन उदाहरणों में करीब सत्‍तर सालों का लंबा अंतराल है, लेकिन एक बात तीनों में साझा है। और वो है नंबर सात के बल्‍लेबाजों की भूमिका, जिन्‍होंने विकेट पर टिक कर या तो अपनी टीम को जीत दिलाई या फिर हार को टालने में अहम भूमिका निभाई।
दरअसल, टेस्‍ट मैचों में किसी भी टीम के बैटिंग ऑर्डर नम्‍बर सात बहुत अहम होता है। अगर कहा जाए कि इस क्रम पर खेलने वाले बल्‍लेबाज अपनी टीम के संकटमोचक होते हैं, तो गलत नहीं होगा। यह वो बल्‍लेबाजी क्रम है, जहां खेलने वाले बल्‍लेबाज अक्‍सर दोहरी भूमिकाएं निभाते हैं। वर्तमान समय में टीमों के बल्‍लेबाजी क्रम को देखें तो ज्‍यादातर विकेटकीपर यह भूमिका निभा रहे हैं। भारत में महेंद्र सिंह धोनी, पाकिस्‍तान में कामरान अकमल, इंग्‍लेंड में मैट प्रायर, न्‍यूजीलैंड में ब्रेंडन मॅक्‍कुलम, दक्षिण अफ्रीका में मार्क बाउचर, इस नंबर पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं और इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी अपनी टीम की बल्‍लेबाजी के मजबूत स्‍तंभ हैं। गिलक्रिस्‍ट के संन्‍यास के बाद उनकी जगह ब्रैड हेडिन ने ली है, और इस बात की ज्‍यादा उम्‍मीद है कि वे भी नंबर सात पर ही बल्‍लेबाजी करेंगे। श्रीलंका में भी अब कुमार संगकारा कुछ दिनों से विशेषज्ञ बल्‍लेबाज की भूमिका में हैं और उनकी जगह विकेटकीपिंग का जिम्‍मा प्रसन्‍ना जयवर्द्धने निभा रहे हैं, जो नंबर सात पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। बांग्‍लादेश के विकेटकीपर मुशफिकुर रहमान, वेस्‍टइंडीज के विकेटकीपर दिनेश रामदीन भी इसी क्रम पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। जिम्‍बाब्‍वे के विकेटकीपर टेटेंडा तायबू भी पहले इसी क्रम पर काफी मैचों में बल्‍लेबाजी कर चुके हैं।
इस क्रम पर सर रिचर्ड हेडली, सर इयान बॉथम, कपिल देव और इमरान खान जैसे महान ऑलराउंडर भी बल्‍लेबाजी कर चुके हैं और यह बताने की जरूरत नहीं कि कई मौकों पर इन्‍होंने अपनी बल्‍लेबाजी मैच का रूख पलट दिया।
टेस्ट क्रिकेट में नम्‍बर नम्‍बर सात पर बल्‍लेबाजी करना हमेशा से ही काफी नाजुक और चुनौतीपूर्ण काम रहा है। इस नंबर पर खेलने तब बल्‍लेबाजी करने आते हैं, जब टीम का टॉप ऑर्डर पवेलियन जा चुका होता है और दूसरी नई गेंद या तो तुरंत ले ली गई हो ती है या फिर ली जाने वाली होती है। ऐसे में नंबर सात को निचले क्रम के बल्‍लेबाजों के साथ मिलकर टीम के स्‍कोर को आगे ले जाना होता है। चूंकि उसे ज्‍यादातर मौकों पर नई गेंद का सामना करना पड़ता है, तो उसे तकनीकी रूप से भी काफी दक्ष होना पड़ता है। कई बार ऐसा होता है कि टीम का ऊपरी क्रम लड़खड़ाने के बाद नम्‍बर सात के बल्‍लेबाज ने शानदार बल्‍लेबाजी कर अपनी टीम की नैया को पार लगाया। नम्‍बर तीन का बल्‍लेबाज जहां पारी को संवारने का काम करता है, वहीं नम्‍बर सात का काम अच्‍छे स्‍कोर को बड़े स्‍कोर में बदलना होता है या फिर टीम जब संकट में हो तो उसे उबारना होता है।
नम्‍बर सात के महत्‍व का अंदाजा भारत-श्रीलंका टेस्‍ट सीरीज से ही लगाया जा सकता है। टेस्‍ट मैचों में भारतीय बल्‍लेबाज मेंडिस के सामने लाचार नजर आए, लेकिन वनडे में टीम इंडिया के कप्‍तान धोनी के पास मेंडिस के हर तीर का जवाब था। इसकी वजह से मेंडिस अपना टेस्‍ट मैचों का रिकॉर्ड प्रदर्शन की सफलता को दोहरा पाने में असफल रहे। नतीजा, भारत ने यह सीरीज 3-2 से जीत ली। धोनी ने इसमें सबसे बड़ी भूमिका अदा की। हालांकि, धोनी वनडे में अमूमन 5 या 6 नंबर पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। लेकिन, टेस्‍ट में धोनी का बल्‍लेबाजी क्रम सात ही होता है। उनकी गैरमौजूदगी में कार्तिक और पार्थिव ने नंबर सात पर बल्‍लेबाजी की, लेकिन उनकी असफलता ने भारत की मुश्किलें बढ़ा दीं। अगर धोनी होते तो शायद प्रदर्शन कुछ बेहतर होता।
नम्‍बर सात एक ऐसा बल्‍लेबाजी क्रम है, मध्‍यक्रम और निचले क्रम के बीच की कड़ी होता है। अगर उसके साथ दूसरे छोर पर एक टॉप ऑर्डर का कोई बल्‍लेबाज होता है तो उसका काम टॉप ऑर्डर के बल्‍लेबाज का साथ देना होता है। वहीं अगर उसके साथ पुछल्‍ले बल्‍लेबाज खड़े हों, तो वह सपोर्टिंग के बदले लीड किरदार में आ जाता है। अगर कहा जाए कि नंबर सात किसी भी टीम का खेल बनाने और बिगाड़ने की क्षमता रखता है तो गलत नहीं होगा। यह बात कई मौकों पर साबित भी हुई है।

Wednesday, September 17, 2008

बांग्‍लादेश क्रिकेट को लगा जोरदार झटका

बांग्‍लादेश के पूर्व कप्‍तान हबीबुल बशर के नेतृत्‍व में राष्‍ट्रीय टीम में शामिल छह क्रिकेटरों सहित 13 क्रिकेटरों के बागी ट्वेंटी-20 लीग आईसीएल में शामिल हो जाने से बांग्‍लादेश क्रिकेट संकट में आ गया है। इस घटना ने बांग्‍लादेश में क्रिकेट के भविष्‍य पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं।
संकट से घिरे देशों में खेल महज खेल भर नहीं होता, बल्कि वहां के लोगों के लिए जीवन के दुख-दर्द को भुलाने का एक जरिया होता है। कभी प्रकृति की मार, तो कभी राजनीतिक संकट रुबरु होते रहने वाला करीब 15 करोड़ की आबादी वाला बांग्‍लादेश भी इसका एक उदाहरण है। कभी फुटबॉल के दीवाने रहे बांग्‍लादेश के लोगों के लिए पिछले कुछ सालों में क्रिकेट एक ऐसे खेल के रूप में उभरा है, जिसे यहां के लोग अपनी परेशानियों को भुलाने के एक माध्‍यम के रूप में देखते हैं। इस खेल के जरिये अपनी पहचान को ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। वर्ल्‍डकप में पाकिस्‍तान और भारत जैसी मजबूत टीमों पर जीत हो या या फिर वनडे सीरीज में वर्ल्‍ड चैंपियन ऑस्‍ट्रेलिया पर जीत, ये कुछ ऐसे लम्‍हे हैं, जो रोजमर्रा के जीवन में परेशानियों से रुबरु होते बहुसंख्‍यक बांग्‍लादेशियों को गौरवान्वित होने का मौका देते हैं। इसलिए क्रिकेट की अहमियत आज इस देश में दिनोंदिन बढ़ रही है।
लेकिन, पिछले दो-तीन दिनों के घटनाक्रम से बांग्‍लादेश क्रिकेट को काफी धक्‍का पहुंचा है। बांग्‍लादेश के छह वर्तमान क्रिकेटरों सहित 13 क्रिकेट खिलाडियों ने देश के बजाए आईसीएल में खेलने का फैसला किया है। इस घटना ने क्रिकेट जगत में अपनी पहचान को गढ़ने की कोशिश कर रहे बांग्‍लादेश को सकते में ला दिया है। इससे उसकी टीम के और भी कमजोर हो जाने का अंदेशा है। वैसे भी पहले से ही बांग्‍लादेश को टेस्‍ट दर्जा दिए जाने पर सवाल उठते रहे हैं। लिहाजा, इस घटना से संकट और गहरा गया है। बांग्‍लादेश क्रिकेट इससे उबरने की जी-तोड़ कोशिश में लगा है। इन कोशिशों में खिलाडि़यों के मान-मनौव्‍वल से लेकर सजा देने की घोषणा तक शामिल है। बांग्‍लादेशी बोर्ड ने अपने उन खिलाडि़यों पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया है जो आईसीएल से जुड़ रहे हैं। लेकिन, इससे समस्‍या का समाधान होने की उम्‍मीद कम ही दिखती है। कल को कुछ और बांग्‍लादेशी क्रिकेटर पैसे की वजह से इसमें शामिल हो सकते हैं।

वैसे तो बांग्‍लादेश में घरेलू क्रिकेट का ढांचा ठीक है। भारत, श्रीलंका, पाकिस्‍तान और इंग्‍लैंड के खिलाड़ी भी समय-समय पर वहां जाकर खेलते रहे हैं। मगर, साल 2000 में अपना पहला टेस्‍ट मैच खेलने वाली बांग्‍लादेश की टीम क्रिकेट जगत में अभी तक अपनी जगह तलाश रही है। जिस समय बांग्‍लादेश को टेस्‍ट टीम का दर्जा दिया जा रहा था उस वक्‍त भी इस फैसले का काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। यह बात कही जा रही थी कि यह एक जल्‍दबाजी में लिया गया फैसला है। इस विरोध के बावजूद, आईसीसी ने बांग्‍लादेश को टेस्‍ट के एलीट क्‍लब में शामिल कर लिया।
मगर, पिछले आठ सालों में बांग्‍लादेश खुद को कभी भी एक टेस्‍ट टीम के रूप में स्‍थापित नहीं कर पाई। 53 टेस्‍ट मैच खेल चुकी बांग्‍लादेशी टीम अभी तक सिर्फ एक टेस्‍ट ही जीत पाई है, वह भी पतन के दौर से से गुजर रहे जिम्‍बाब्‍वे के खिलाफ। 47 मैचों में उसे हार का सामना करना पड़ा है। इस बीच रह-रहकर उसके टेस्‍ट दर्जे को बनाए रखने पर सवाल उठते रहे। मगर, बांग्‍लादेश में क्रिकेट के बाजार के चलते टेस्‍अ दर्जा वापस लेने का फैसला नहीं किया गया।
हालांकि वनडे में बांग्‍लादेश ने समय-समय पर बड़ी टीमों को हराकर उलटफेर किया है। चाहे 1996 के विश्‍व कप में पाकिस्‍तान पर जीत हो या‍ फिर 2007 विश्‍वकप में भारत को हराने का कारनामा, जिसकी वजह से भारत को पहले दौर में ही बाहर हो जाना। बांग्‍लादेश वर्ल्‍ड चैंपियन ऑस्‍ट्रेलिया को भी मात दे चुका है। लेकिन, बांग्‍लादेश ऐसे कारनामें कभी-कभार ही कर पाया। अपने प्रदर्शन की निरंतरता को बनाए नहीं रख सका। लिहाजा, ये सारी जीत महज तुक्‍का ही साबित होकर रह गई।
बांग्‍लादेश की क्रिकेट की गाड़ी अभी तक अपनी लय पकड़ भी नहीं पाई है कि उसे इतना बड़ा झटका स्‍पीड ब्रेकर की तरह सामने आ गया। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस झटके से टीम अपने मौजूदा हालात से दस साल तक पीछे चली जाएगी। उसे दोबारा वहीं से शुरू करना पड़ेगा, जहां से सालों पहले शुरूआत की थी। आखिर जो‍ खिलाड़ी आईसीएल में गए हैं उन्‍हें तैयार करने में बांग्‍लादेश क्रिकेट बोर्ड ने काफी मेहनत की होगी। भले ही उनका प्रदर्शन अच्‍छा न रहा हो, मगर क्रिकेट जगत वक्‍त के साथ-साथ उनके खेल के स्‍तर में बेहतरी की उम्‍मीद तो लगाए बैठा ही होगा। ऊपर से इन खिलाडियों को बागी करार देकर इन पर लगाए गए दस साल के प्रतिबंध ने इन खिलाडि़यों की वापसी की राह भी बंद कर दी है। बांग्‍लादेश के क्रिकेट पर आया यह संकट काफी गहरा है, जिससे निपटने में उसे काफी वक्‍त लग सकता है। इसके लिए न सिर्फ बांग्‍लादेश क्रिकेट बोर्ड को गंभीर प्रयास करने पड़ेंगे, बल्कि अन्‍य देशों के सहयोग की भी जरूरत होगी।

Tuesday, September 16, 2008

इस बार पूरी तरह से तैयार है आईसीएल

इंडियन क्रिकेट लीग और इंडियन प्रीमियर लीग के बीच प्रतिद्वंद्विता क्रिकेट में जगजाहिर है। एक दूसरे से आगे निकलने की इस होड़ में पिछले साल आईसीएल पीछे रह गया था, लेकिन इस बार की तैयारियां कुछ खास हैं। इसके दूसरे सीजन में आईसीएल के अधिकारी न केवल बुनियादी कमियों को दूर करने में लगे हैं, बल्कि नए खिलाडि़यों को लीग में शामिल कर दर्शकों को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते।
भारत मल्‍होत्रापहले आया आईसीएल- खिलाडि़यों के लिए बड़ा पैसा कमाने के पहले मौके के रूप में। भारत में टी-20 क्रिकेट की वास्‍तविक शुरुआत का श्रेय आईसीएल को ही है। एस्‍सेल ग्रुप द्वारा संचालित इस लीग में देश-विदेश के कई खिलाडी शामिल हुए। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद इसे वह सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्‍मीद थी। फिर आया आईपीएल- बीसीसीआई द्वारा संचालित इस लीग ने भी 20-20 फॉर्मेट को अपनाया। ताज्‍जुब की बात तो यह है कि आईपीएल को अपार सफलता मिली और आईसीएल गुमनामी के अंधेरे में खो गया। कपिल देव का यह बयान कि आईसीएल क्रिकेट में बेहतर रहा और आईपीएल मॉर्केटिंग में- दरअसल, यह बात कपिल के दर्द की ओर इशारा करता है, वो उस सफलता को हासिल नहीं कर पाए जिसकी उम्‍मीद उन्‍होंने की थी। सही मायनो में आईपीएल की सफलता ने आईसीएल के लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं। भारत ने टी-20 के फॉरमेट की शुरुआत आईसीएल ने की मगर बावजूद इसके वह लोगों को अपनी ओर खींचने में नाकामयाब रहा। वहीं दूसरी ओर आईपीएल ने सफलता के नए आयाम तय कर दिए। आईसीएल को पता है कि अब उसके लिए खुद को बचाए रखने के लिए काफी मेहनत करने की जरूरत है। आईसीएल अब अपने दूसरे सीजन के साथ आने के लिए तैयार है। पिछली बार इस टूर्नामेंट को इतनी सफलता न मिली हो, मगर इस बार उनकी पूरी कोशिश है इस तथाकथित बागी टूर्नामेंट को एक सफल आयोजन बनाया जा सके। आईसीएल को अभी तक किसी भी क्रिकेट बोर्ड की ओर से मान्‍यता नहीं मिली है और यही बात उसके आगे बढ़ने में सबसे बड़ी रुकावट बन रही है। सभी देशों के क्रिकेट बोर्ड इस बात को साफ तौर पर कह चुके हैं कि जो भी खिलाड़ी आईसीएल का हिस्‍सा बनेगा वह राष्‍ट्रीय टीम में नहीं चुना जाएगा, यानी उसका अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट करियर समाप्‍त हो जाएगा। पिछले सीजन में आईसीएल के पास एक भी अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर का स्‍टेडियम नहीं था और न ही प्रायोजन के स्‍तर पर ही कोई स्‍थापित नाम उनसे जुड़ने को तैयार हुआ था। इन सब बातों से निजात पाने के लिए ही आईसीएल इस बार किसी भी तरह की कोताही बरतने की गलती नहीं करना चाहता। कपिल एंड कंपनी जानते हैं कि अगर इस बार वे अपना स्‍तर और प्रदर्शन नहीं जुटा पाए तो उनके लिए दोबारा यहां से संभलना काफी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए इस दूसरे सीजन की तैयारी के लिए काफी समय पहले ही तैयारी शुरू कर दी गई। इस बार आईसीएल का आयोजन पिछली बार से बड़े स्‍तर पर करवाया जा रहा है। अच्‍छी सुविधाओं के नाम पर नए मैदानों का जुगाड़ किया जा रहा है तो नए खिलाडि़यों को साथ करने की भी हरसंभव कोशिश की जा रही है। साथ ही इस बार तो उन्‍हें कुछ प्रायोजक भी मिलने लगे हैं। इस बार आईसीएल को अहमदाबाद के एक स्‍टेडियम में खेलने का मौका मिलेगा, इसके साथ ही यहां पर ईडन गॉर्डन को लेकर भी आईसीएल अधिकारी कोशिश कर रहे हैं। आईसीएल के साथ खिलाडि़यों के जुड़ने और साथ छोड़ने का एक सिलसिला चलता रहा है। ब्रॉयन लारा इसके साथ जुड़े मगर खेलने में उनका मन यहां कभी खेलने में नहीं लगा। शेन वॉर्न और ग्‍लेन मैक्‍ग्रा की भी इसके साथ जुड़ने की खबरें आई थीं, मगर बाद में दोनों ही सितारे आईसीएल को ठेंगा दिखाकर आईपीएल में शामिल हो गए। मोहम्‍मद यूसुफ भी आईसीएल में शामिल होने को तैयार थे मगर बाद में वे आईपीएल में शामिल होने को ललचाते रहे। हांलांकि, उन्‍हें वहां भी जगह नहीं मिली। इस सबके बीच बांग्‍लादेश के 14 खिलाडियों के आईसीएल के साथ जुड़ने की बात सामने आई है। आईसीएल के लिए एक बड़ी खुशखबरी है कि टेस्‍ट खेलने वाले किसी देश के खिला‍ड़ी उसके साथ जुड़ रहे हैं।

Monday, September 8, 2008

ईरानी ट्रॉफी पर है सबकी निगाहें

ईरानी ट्रॉफी के मुकाबले से ही टेस्‍ट टीम चुने जाने की पूरी संभावना है। चैंपियंस ट्रॉफी न होने की सूरत में ईरानी ट्रॉफी पर सबकी निगाहें टिकी हैं।

ऑस्‍ट्रेलिया से टेस्‍ट सीरीज का आगाज 9 अक्‍टूबर से होगा। लेकिन, इससे पहले ही 24 सितंबर से वड़ोदरा मे शुरू हो रही ईरानी ट्रॉफी का सबको बेसब्री से इंतजार रहेगा। भारतीय क्रिकेट का हर स्‍टार यहां शिरकत करेगा। लेकिन, भारतीय क्रिकेट के चयनकर्ताओं से लेकर जानकारों और क्रिकेट को चाहने वालों सबकी निगाह इस बात पर होगी कि कौन कि पोंटिंग की वर्ल्‍ड चैंपियन टीम के खिलाफ टेस्‍ट टीम में जगह बना सकता है। इसलिये इस बार ईरानी ट्रॉफी अचानक सुर्खियों में है।

ऑस्‍ट्रेलिया से खिलाफ सीरीज शुरू होने से पहले भारतीय खिलाडियों के पास खुद को परखने का अकेला मौका है। हाल ही श्रीलंका के खिलाफ खेली गई टेस्‍ट सीरीज में भारत का गोल्‍डन मिडिल ऑर्डर रन बनाने में नाकामयाब रहा था। इस मैच के जरिए बल्‍लेबाजों के पास ऑस्‍ट्रेलियाई टेस्‍ट सीरीज से पहले खुद को टटोलने और अपनी खोई लय पाने का भी यह आखिरी अवसर कहा जा सकता है। ऑस्‍ट्रेलिया के लिए भारत हमेशा से ही एक मुश्किल टीम रही है। पिछली बार पोंटिंग की टीम भारत को 35 साल बाद सीरीज हरा पाने में सफल रही थी। इस बार भारत की पूरी कोशिश होगी कि वह बार सीरीज जरूर जीते वहीं दूसरी ओर ऑस्‍ट्रेलिया पिछली बार के प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश करेगा। ऐसे में चयनकर्ता ईरानी ट्रॉफी के जरिए एक ऐसी मजबूत टीम चुनना चाहेंगे जो ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ टीम को सीरीज में जीत दिला सकें।
ईरानी ट्रॉफी के मुकाबले से ही टेस्‍ट टीम चुने जाने की पूरी संभावना है। पूरी टीम पर नजर दौड़ाने के बाद टीम में ओपनर के तौर पर सहवाग के साथी के तौर पर चार दावेदार खड़े नजर आते हैं। गौतम गंभीर, वसीम जाफर और आकाश चोपड़ा के साथ ही पार्थिव पटेल भी अपनी दावेदारी पेश करते नजर आ रहे हैं। वहीं नम्‍बर 6 के‍ लिए कैफ का नाम सबसे आगे हैं। इसके आलावा रोहित शर्मा, बदबीनाथ और सुरेश रैना भी इस दौड़ में हैं। लेकिन अगर कहीं ये सितारे अच्‍छा प्रदर्शन नहीं कर पाए तो युवराज सिंह और पूर्व भारतीय कप्‍तान सौरव गांगुली भी इस टीम का हिस्‍सा बन सकते हैं।

चैंपियंस ट्रॉफी न होने की सूरत में भी इस ट्रॉफी पर निगाहें और भी ज्‍यादा गढ़ गई हैं। इससे पहले साल 2003 में मुंबई बनाम शेष भारत मुकाबले में ही इतने सितारे एक साथ नजर आए थे। चेन्‍नई में खेले गए इस मैच में शेष भारत की ओर से वीवीएस लक्ष्‍मण, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ जैसे सितारे थे वहीं सचिन तेंदुलकर मुंबई की ओर से खेलते नजर आए थे। इस मुकाबले के जरिए टीम को श्रीलंका की हार से तो उबरना ही है साथ ही खुद को पोंटिंग की सेना के लिए पूरी मजबूती से तैयार भी करना है।ईरानी ट्रॉफी में पहले भी भारतीय क्रिकेट टीम को सितारे देती चली आई है। 1976 में दिलीप वेंगसरकर ने मुंबई की ओर से खेलते हुए ईरानी ट्रॉफी में 90 रनों की पारी खेली थी जिसकी बदौलत वे भारतीय टेस्‍ट टीम में जगह बना पाए थे। मौजूदा भारतीय टेस्‍ट टीम के कप्‍तान अनिल कुंबले भी ईरानी ट्रॉफी के जरिए ही भारतीय टीम में वापसी कर पाए थे। 1992 में दिल्‍ली के खिलाफ खेलते हुए कुंबले ने मैच में कुल 13 विकेट लिए थे और इसके बाद कुंबले टीम का एक अहम हिस्‍सा बन पाए।

Thursday, September 4, 2008

विदेशी कोचों ने निभाई है सकारात्‍मक भूमिका

विदेशी कोच अब एशियाई टीमों का एक अहम हिस्‍सा सा बन गए है। इस समय सभी एशियाई देशों को विदेशी कोच ही कोचिंग दे राहे हैं। उनके आने के सा‍थ विवाद भले ही जुड़े हों, मगर टीमों को उनके आने से फायदा तो हुआ ही है।

साल 2003 का विश्‍व कप। भारतीय टीम 20 साल बाद विश्‍व कप के फाइनल में पहुंची थी। ऐसा नहीं था कि टीम संयोगवश ही फाइनल में पहुंची हो। टीम को इस मौके के लिए तैयार करने की तैयारी काफी समय से चल रही थी। यह वह दौर था जब भारतीय टीम सचिन के साये से निकलकर सही मायनों टीम इंडिया बन रही थी। टीम इ‍ंडिया जिसमें जीत का जज्‍बा था, टीम इंडिया जो मैदान पर अपने आखिरी दम तक लड़ने के लिए तैयार थी। उस समय मैन इन ब्‍लू को बनाने की जिम्‍मेदारी दो इंसानों के हाथ में थी। सौरव गांगुली और टीम इंडिया के पहले विदेशी कोच जॉन राइट। न्‍यूजीलैंड के इस बल्‍लेबाज ने सौरव गांगुली के साथ मिलकर भारतीय टीम मे आखिरी दम तक जीत के लिए जी-जान लगाने का जज्‍बा भरा वो उससे पहले भारतीय टीम में कभी नहीं देखा गया। विश्‍व कप के शुरुआती दौर में टीम के खराब प्रदर्शन के कारण काफी आलोचनाएं हुई थी। मगर, यह जीत की भूख का ही न‍तीजा था कि टीम ने उसके बाद लगातार जीत दर्ज करते हुए फाइनल तक सफर तय किया।
उस दौर में भारत में नए खिलाड़ी अपनी जगह बनाने के साथ साथ जिम्‍मेदारी भी समझ रहे थे। इसके लिए कोच की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर खिलाडियों को तराशना और उनमें विश्‍वास भरना कोच के काम का एक अहम हिस्‍सा है। एशियाई महाद्वीप में विदेशी कोचों की बात को थोड़ा और पीछे ले जाया जाए तो साल 1996 में श्रीलंका सभी संभावनाओं को झुठलाते हुए विश्‍व कप चैंपियन बनी थी। टूर्नामेंट से पहले श्रीलंका ने अंचभे करने तो शुरु किया था मगर उसके विश्‍व विजेता बनने पर कोई भी पैसा लगाने को तैयार नहीं था। मगर सनथ जयसूर्या से पारी की शुरूआत कराने का फैसला वनडे की दिशा और दशा बदलने वाला साबित हुआ। जयसूर्या ने शुरूआती 15 ओवर में तेजी से रन बनाने का जो सिलसिला शुरु किया वो आने वाले दिनों में वनडे की पहचान बन गया। इसके बाद साल 2007 में श्रीलंका विश्‍व कप के फाइनल तक पहुंची थी, और इस बार भी टीम की कोचिंग की जिम्‍मेदारी पूर्व ऑस्‍ट्रेलियाई खिलाड़ी टॉम मूडी के हाथ में थी।

इन दोनो घटनाओं में एक बात समान थी वह थी विदेशी कोच का होना। अर्जुन राणातुंगा ने जब लाहौर के गद्दाफी स्‍टेडियम में विश्‍व कप थामा तो उस समय टीम के कोच के रूप में डेव व्‍हॉटमोर मौजूद थे। व्‍हॉटमोर ने श्रीलंकाई टीम के साथ जो तजुर्बे किए उसने न सिर्फ श्रीलंका को विश्‍व विजेता ही बनाया बल्कि एक बेहतर टीम बनने में भी मदद की।

इस लिहाज से अगर देखा जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप की सभी टीमों की कमान अब पिछले काफी समय से विदेशी कोचों के हाथ में है। इन कोचों की मौजूदगी में एशियाई टीमों को काफी फायदा भी हुआ है। भारत की कमान दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ी गैरी कर्स्‍टन के हाथ में है तो पाकिस्‍तान के कोच का पद जैफ लॉसन के पास है। श्रीलंका और बांग्‍लादेश की नजर में भी विदेशी कोच ही टीम को बेहतर रूप देने में ज्‍यादा कारगर स‍ाबित हो सकते हैं। अगर व्‍हॉटमोर को देखा जाए तो उन्‍होने न सिर्फ श्रीलंकाई टीम के खेल के स्‍तर को ऊंचा उठाया वहीं उसके बाद बांग्‍लादेश टीम को भी पहले से बेहतर टीम बनाया। आजकल व्‍हॉटमोर भारत में रहकर एनसीए के साथ काम कर रहे हैं और उन्‍हीं की श‍ार्गिदगी में जूनियर टीम इंडिया विश्‍व कप विजेता बनकर आई।

ग्रेग चैपल का भारतीय टीम के साथ गुजारा वक्‍त भले ही काफी विवादों के बीच घिरा रहा हो, मगर टीम इंडिया को कई नए सितारे दिए। जिस टीम ने टी-20 विश्‍व कप जीता उसमें ज्‍यादातर खिलाड़ी ग्रेग चैपल के समय में ही भारतीय टीम के साथ जुड़े। चैपल ने आते ही भविष्‍य की टीम बनाने पर नजर रखी और नए चेहरों को टीम में मौका देना शुरू किया। सुरेश रैना उनमें से एक नाम है जो चैपल के वक्‍त में टीम इंडिया का हिस्‍सा बने। दरअसल, चैपल शुरू से नए खिल‍ाडियों और नए‍ सितारों को टीम में मौका देने के पक्षधर रहे। उन्‍हीं के कोच रहते भारत ने रनो का पीछा करते हुए लगातार 17 वनडे जीतने का रिकॉर्ड बनाया। ग्रेग चैपल भारतीय टीम के साथ भले ही न हों मगर भारत के साथ अभी भी जुड़े हुए हैं। चैपल फिलहाल राजस्‍थान क्रिकेट एसोसिएशन के साथ जुड़े हुए हैं।

पहला आईपीएल टूर्नामेंट जीतने वाली टीम के खिलाडियों को ढूढने का जिम्‍मा भी चैपल ने ही तो संभाला था। वैसे, आईपीएल की भी अगर बात की जाए तो वहां भाग ले रही सभी टीमों में विदेशी खिलाड़ी या तो कोच के तौर पर काम कर रहे थे या‍ फिर वे बतौर सलाहकार टीमों के साथ जुडें थे। फिर चाहे वो ऊपरी दो पायदानों पर रही राजस्‍थान रॉयल्‍स और चेन्‍नई सुपरकिंग्‍स रही हो या फिर सबसे नीचे रही बंगलौर रॉयल चैंलेजर्स और डेक्‍कन चार्जर्स। हर जगह विदेशी कोचों ही नजर आए। यह बात साफ करती है कि क्रिकेट के इस नए प्रारूप जिसकी शुरुआत भारत में भारतीयों द्वारा की गई में भी विदेशी कोचों का ही बोलबाला रहा है।

यह विदेशी कोच खेल में बेहतर प्रोफेशनल रवैये के साथ आते हैं जहां खिलाड़ी के नाम की बजाए उनके प्रदर्शन को ज्‍यादा तरजीह दी जाती है। यहां नाम से ज्‍यादा काम की कीमत समझी जाती है। वे नई सोच के साथ आते हैं और उस सोच को पूरा करने के लिए उनके पास पूरी रणनीति भी होती है। ज्‍यादातर मामलों में टीम को उससे फायदा ही हुआ है।

मौके को भुनाने में माहिर हैं माही

करीब चार साल पहले भारतीय टीम में जगह बनाने वाले महेंद्र सिंह धोनी आज भारतीय किक्रेट के सबसे चमकते सितारे हैं। इतने कम समय में उन्‍होंने क्रिकेट के बारे में जो समझ विकसित की है, वह काबिले-दाद है। यही वजह है कि कप्‍तान रूप में ट्वेंटी-20 और वनडे में उनके प्रदर्शन को देखते हुए लोग उन्‍हें टेस्‍ट टीम की कप्‍तानी सौंपने की बात कह रहे हैं। इस कड़ी में सबसे नया नाम टीम इंडिया के कोच गैरी कर्स्‍टन का है।

भारत मल्‍होत्राभारत-श्रीलंका वनडे सीरीज का तीसरा मैच। 91 रन पर भारत के चार खिलाड़ी आउट हो चुके थे। ऐसे हालात में धोनी नम्‍बर 6 पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। पहले सुरेश रैना के साथ 54 रनों की साझेदारी और उसके बाद रो‍हित शर्मा के साथ 67 रनों की साझेदारी। इन दो अहम साझेदारियों की बदौलत भारत का स्‍कोर 200 के पार पहुंचता है। 23वें ओवर में बल्‍लेबाजी करने आए धोनी 49 वें ओवर तक बल्‍लेबाजी कर 76 रन बनाते हैं। भारत यह मैच जीत कर सीरीज में 2-1 की बढ़त हासिल करता है।इससे अगले मैच में रैना शानदार बल्‍लेबाजी कर रहे थे, विराट कोहली के आउट होने के बाद (81/3) धोनी नम्‍बर इस बार पांच पर बल्‍लेबाजी करने आते हैं। वजह, रैना के साथ मिलकर रन गति को बनाए रखना। धोनी का यह तीर पर निशाने पर लगा। उनके और रैना के बीच 143 रनों की साझेदारी की बदौलत पहली बार (और अंतिम बार भी) स्‍कोर 250 के पार पहुंचता है। दोनों टीमों की ओर से यह सीरीज में एक पारी का उच्‍चतम स्‍कोर था। भारत यह मैच जीत कर सीरीज में 3-1 में निर्णायक बढ़त हासिल कर लेता है। ये दोनो उदाहरण यह दिखाते हैं धोनी परिस्थितियों को पढ़कर उसके हिसाब से खुद को ढालने में कितने माहिर हैं। वह जानते है कि कब, कौन सा फैसला टीम के लिए फायदेमंद होगा। उनकी इसी खूबी ने भारतीय कोच गैरी कर्स्‍टन को भी उनका दीवाना बना दिया है। आखिर, कोच को भी कहना ही पड़ा कि धोनी अब टेस्‍ट कप्‍तानी संभालने के लिए तैयार हैं।

वैसे, धोनी के टेस्‍ट कप्‍तान बनने की सुगबुआहट तो काफी समय पहले ही शुरू हो गई थी, मगर अब जब कर्स्‍टन की ओर से यह बयान आया है तो इस बात को और बल मिला है कि अब धोनी के टेस्‍ट कप्‍तान बनने में ज्‍यादा देर नहीं है। यह बात सही है कि अब अनिल कुंबले ज्‍यादा वक्‍त तक क्रिकेट नहीं खेल पाएंगें। आखिर वे अपने करियर के अंतिम पड़ाव पर हैं। इन हालातों में धोनी ही सबसे ताकतवर विकल्‍प के तौर पर सामने आते हैं। धोनी के अलावा वीरेन्‍द्र सहवाग भी कुंबले का विकल्‍प बन सकते हैं, मगर इस दौड़ में वे काफी पिछड़ते नजर आ रहे हैं। रही बात युवराज की, तो उनके लिए टीम में अपनी जगह बचाना ही काफी मुश्किल नजर आ रहा है। ऐसे में कप्‍तानी की बात तो काफी दूर की कौड़ी नजर आती है। साल 2004 में भारतीय टीम में कदम रखने वाले महेंद्र सिंह धोनी ने बहुत जल्‍दी कामयाबी की उचाईयां छू ली हैं। साल 2007 में इंग्‍लैंड दौरे से आने के बाद जब धोनी को ट्वेंटी-20 और वनडे टीम की कमान सौंपी गई, तब टीम सही मायनों में काफी परेशानियों से जूझ रही थी। उस संकट की घड़ी से टीम को निकालकर ट्वेंटी-20 विश्‍व कप विजेता बनाना और उसके बाद ऑस्‍ट्रेलिया में कॉमनवेल्‍थ बैंक सीरीज में जीत हासिल करना धोनी के करियर की सबसे बड़ी कामयाबियां कही जा सकती हैं। हाल ही में श्रीलंका को उसी के घर में वनडे में मात देकर धोनी ने एक और बड़ी कामयाबी हासिल की है। कोच कर्स्‍टन भी इस राय से इत्‍तेफाक रखते हैं कि धोनी सर्वश्रेष्‍ठ वनडे बल्‍लेबाजों में शुमार है और अपने प्रदर्शन के दम पर खेल का रुख बदलने का माद्दा रखते हैं। टीम वनडे मुकाबलों में उनकी कप्‍तानी में जीत भी हासिल कर रही है। धोनी ने कप्‍तान बनने के बाद अपनी बल्‍लेबाजी करने के तरीके में भी बदलाव किए हैं।

धोनी ने अपने करियर की शुरुआत एक आक्रामक बल्‍लेबाज के तौर पर की। अपने पांचवें ही मैच में धोनी ने पाकिस्‍तान के खिलाफ शानदार 148 रनों की नाबाद पारी खेली। उसके बाद श्रीलंका के खिलाफ भी जयपुर में धोनी ने धुंआधार 183 रन रन बनाए। मगर, धोनी अब सिर्फ धूम-धूम में ही विश्‍वास नहीं रखते। परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालकर मैच को विरोधी के पंजे से खींचकर लाना धोनी की आदत सी हो गई है।

विरोधी टीमें जानती हैं कि धोनी के विकेट की अहमियत क्‍या है। धोनी खुद भी अपने विकेट की कीमत पहले से बेहतर समझते हैं। अगर विकेट पर टिककर बल्‍लेबाजी करने की जरूरत है तो धोनी उसी के हिसाब से बल्‍लेबाजी कर पारी को आगे बढ़ाते हैं। साथ ही, बीच-बीच में कमजोर गेंद पर प्रहार कर गेंदबाजों को हावी होने का मौका भी नहीं देते। गियर बदलने में उन्‍हें देर नहीं लगती। असल में वे जानते हैं कि कैसे धीरे-धीरे अपने लक्ष्‍य की बढ़ते हुए रफ्तार में बदलाव करना है।

अगर इस बात को आंकड़ों की नजर से देखा जाए तो, 120 वनडे खेल चुके धोनी का करियर औसत 47।81 है, वहीं 36 मैचों में बतौर कप्‍तान उन्‍होंने 57.83 की औसत से रन बनाए हैं। इससे पता चलता है कि वे कप्‍तानी की जिम्‍मेदारी से टूटने वाले खिलाडियों में से नहीं है, बल्कि यह जिम्‍मेदारी उन्‍हें और मजबूत बनाती है। कप्‍तान, विकेटकीपर और बल्‍लेबाज की तिहरी भूमिका निभाने वाले धोनी सभी जिम्‍मेदारियों को अच्‍छी तरह से निभाने में सक्षम रहें हैं। नम्‍बर 5 या 6 पर कठिन परिस्थितियों में बल्‍लेबाजी कर धोनी कई बार टीम के लिए संकटमोचक की भूमिका निभा चुके हैं। जिन 36 मैचों में धोनी ने कप्‍तानी की है उनमें से 19 बार टीम को जीत मिली है और 14 में हार। जीते हुए मुकाबलों में धोनी का औसत 82.44 का है, वहीं जिन मैचों में टीम हारी है उनमें उनका औसत गिरकर 32.07 रह जाता है। यह बात साबित करती है कि धोनी का प्रदर्शन टीम की जीत में अहम रोल अदा करता है।

कप्‍तान के तौर पर धोनी में जोखिम लेने की हिम्‍मत भी नजर आती है। वे लकीर के फकीर बनने के बजाए जीत हासिल करने के लिए नए तरीके आजमाने से पीछे नहीं हटते। चौथे मैच में ही सनत जयसूर्या भारतीय गेंदबाजों के लिए खतरा बनते जा रहे थे, ऐसे मौके पर धोनी गेंद हरभजन सिंह को थमाते हैं। हरभजन भी अपने कप्‍तान के फैसले को सही साबित करते हुए जयसूर्या को आउट कर देते हैं। कप्‍तानी की समझ के बारे में कहा जाए तो धोनी प्रयोग करने से नहीं डरते और अपने फैसले के परिणाम भुगतने के लिए भी तैयार रहते हैं। वे हार और जीत दोनो के लिए किसी एक को नहीं, बल्कि उसे टीम की साझा जिम्‍मेदारी मानते हैं। यह एक कप्‍तान की सबसे बड़ी खूबी है जो व्‍यक्गित
आरोपों से बचते हुए पूरी टीम को साथ लेकर चलने की कला जानता हो।
धोनी के पूर्व के कप्‍तानों के प्रदर्शन पर देखा जाए तो राहुल द्रविड़ ने 79 वनडे मैचों में भारत की कप्‍तानी की। बतौर कप्‍तान उन्‍होंने 42 से ज्‍यादा की औसत से रन बनाए, जबकि उनका करियर औसत 39.49 का ही है। सचिन तेंदुलकर के लिए कप्‍तानी एक बुरे दौर की तरह रही। अपने 73 मैचों के कप्‍तानी के सफर में सचिन का औसत 37.75 ही रहा, जबकि उनका करियर औसत 44 के ज्‍यादा है। सचिन की बल्‍लेबाजी पर कप्‍तानी का दबाव साफ तौर पर देखा जा सकता था। धोनी जानते हैं कि उन्‍हें टीम के युवा खिलाडियों से कैसे काम कराना है। युवाओं को तरजीह देने के कारण कई बार उनकी तुलना सौरव गांगुली से भी की जाती है जिन्‍होने अपनी कप्‍तानी में युवाओं की टीम बनाने का काम किया था।

Saturday, August 30, 2008

क्‍योंकि धोनी जानते हैं...


युवाओं के युवा कप्‍तान महेंद्र सिंह धोनी जानते हैं कि युवाओं की इस फौज से बेहतर प्रदर्शन कैसे करवाया जाता है। अपने खिलाडियों में विश्वास भरने में माही का कोई सानी नहीं है। उन पर जिम्‍मेदारी डालकर उनमें आत्‍मविश्वास भरने की कला में भी माहिर हैं माही। वे जानते हैं कि उनके युवा खिलाडियों से उन्‍हें कब क्‍या और कैसे काम लेना है । अपनी टीम के हर खिलाडी की नब्‍ज पर उनकी गहरी पकड़ है।

श्रीलंका दौरे के आखिरी मैच के बाद प्रेजेन्‍टेशन के बाद भी धोनी की यही बात सामने आई। सीरीज का आखिरी मैच हारने के बावजूद भारत 3-2 से सीरीज पर कब्‍जा करने में कामयाब रहा। धोनी को आइडिया कप लेने के लिए स्‍टेज पर जाना था। स्‍टेज पर जाते हुए धोनी अचानक रूके और फिर अचानक किसी एक खिलाड़ी को आवाज लगाई और साथ चलने के लिए कहा। यह खिलाड़ी था विराट कोहली। भारतीय टीम की इस सीरीज के साथ ही अपने वनडे क्रिकेट करियर का आगाज करने वाला अंडर-19 कप्‍तान। धोनी ने विराट के साथ मिलकर आइडिया कप थामा। अब सवाल यह उठता है कि धोनी ने विराट को ही साथ ले जाने के लिए क्‍यों चुना। आखिर विराट में ऐसी क्‍या खूबी है जो अन्‍य खिलाडियों में नहीं। तो, इसके दो जवाब हो सकते हैं। पहला, वीरेंद्र सहवाग और सचिन तेंदुलकर की अनुपस्थिति में जिस तरह से विराट ने बतौर ओपनर बल्‍लेबाजी की उससे धोनी खुश हुए होंगें। आखिर विराट ने रेगुलर ओपनर बल्‍लेबाज गौतम गंभीर से अच्‍छा ही प्रदर्शन किया और भी एक मध्‍यमक्रम का बल्‍लेबाज होते हुए।

मगर यह बात शायद उतनी कारगर न लगे जितनी कि दूसरी वाली हो सकती है। दरअसल, विराट को साथ ले जाकर धोनी भारतीय क्रिकेट के आने वाले वक्‍त की तस्‍वीर दिखाना चाहते थे। वह तस्‍वीर जिसमें वे स्‍वयं सेना नायक हैं और साथी खिलाड़ी उनके जांबाज सिपाही। वो सिपाही जो मैदान पर जीत और सिर्फ जीत के इरादे से उतरते हैं।

विराट को साथ ले जाकर धोनी ने उनके अंदर यह भावना भी जगाई कि वे टीम का एक अहम हिस्‍सा हैं न कि सिर्फ किसी की जगह भरने वाले फिलर। विराट के लिए भी यह बात काफी खुश करने वाली होगी कि पहली ही सीरीज में आधुनिक भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे ताकतवर इंसान की नजर में उनकी और उनके टेलेंट की कद्र होने लगी है। जरूरत यह है कि विराट इसके बावजूद अपने कदम जमीन पर रखें।

धोनी ने भी बता दिया कि वे जानते हैं कि किस तरह से नए खिलाडियों के भीतर विश्वास भरना है ताकि वे अपना बेहरतीन प्रदर्शन दे सकें। ऐसा पहली बार नहीं है जब धोनी ने अपने हुनर से युवाओं की ब्रिगेड का खुद को ब्रिगेडियर बनाया हो। फिर चाहे वो अनुभवी जहीर के होते हुए प्रवीण कुमार को नई गेंद सौंपना हो या फिर टी-20 का आखिरी ओवर हरभजन के होते हुए जोगिन्‍दर शर्मा से फेंकवाने का रिस्‍क हो। धोनी हर जगह बहादुरी से फैसले लेते हैं और अगर परिणाम आशा के अनुरूप न आए तो उसकी जिम्‍मेदारी लेने की हिम्‍मत भी है इस युवा कप्‍तान में। मगर ज्‍यादातर मामलों में धोनी के धुरंधर अपने नायक को नाकामी का दर्द महसूस नहीं होने देते और मैदान के अंदर और बाहर दोनो ही जगह अपना भरपूर प्रदर्शन देने में जी जान लगा देते हैं। क्‍योंकि उन्‍हें पता है कि धोनी जानते है.....